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सरोजिनी की यात्रा।

मैदा निकलता है उसी प्रकार भाभी के दानों ओठों से हँसी की छटा निकलने लगा।

आकाश में तारागण का प्रकाश हुआ और दक्षिगा पवन चलने लगा। खलासी लोग नमाज़ भी पढ़ चुके। एक पागल खलासी अपना एकतारा लेकर बजाने और बड़े उत्साह से सिर हिला हिलाकर गाने लगा। छत पर, बिछौने पर, जिसने जहाँ जगह पाई वह वहीं लेट रहा। थोड़ा थोड़ा साँस लेने का और अधिक नाक का शब्द सुन पड़ने लगा। बातचीत बिलकुल बन्द थी। उस समय मालुम होता था कि एक बहुत बड़ा दुःस्वप्न-पक्षी हम लोगों पर पंख फैलाय हुए है और अण्डे के समान हम लोगों को से रहा है। मुझसे नहीं रहा गया। मैंने निश्चय किया कि "मधुरंण समापयेत्" होना चाहिए। यदि आज ही हम लोगों की जन्मपत्री समाप्त हो जाय, यदि यह जहाज़ बैतरणी नदी के उस पार ही जाकर ठहरे, तो यह सब होने के पहले एक बार ख़ूब बाजा बजा लेना चाहिए। यदि चित्रगुप्त की सभा मेँ जाना ही है तो मुँह लटका कर अरसिक की तरह जाना उचित नहीं। और एक बात है। यदि वहाँ अन्धकार है तो फिर यहीं से अपने साथ और अन्धकार ले जाने की आवश्यकता ही क्या है। तब रानीगंज तक कोयला ढोकर ले जाने का परिश्रम क्यों उठाया जाता है? अच्छा बजाओ। इसी समय मेरे भाई के लड़के ने सितार छेड़ा झन झन करके ईमन-कल्यागा बजने लगा।

दूसरे दिन खोज करने पर मालूम हुआ कि जहाज़ की बहुत सी चीजों का नाश हो गया है। उन वस्तुओं के न रहने पर भी