पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/१३३

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विचित्र प्रबन्ध । है। दखन से मालूम होता है कि हमार पिता-पितामह आदि की वृद्धा माता बहुत दूर तक समुद्र में भी व्याकुलता के साथ हाथ फैलाकर पुकार रही हैं कि रात के समय अपार समुद्र में अनि- श्चित के दंश से कहाँ जा रहा है ! अब भी लोट पा ! धीरे धीरे बम्बई बन्दर बहुत पीछे छूट गया । सन्ध्याकाल का म्बों से घिरा हुआ अन्धकार समुद्र की अनन्त शय्या पर लंट रहा। आकाश में तामागगा न थे। कहीं कहीं बहुत दूर पर लाइट-हाउस में प्रकाश चमक उठा । समुद्र के सिर का और वह कॉपती हुई दीप-शिखा, समुद्र में बरं जा रहे अपने पुत्रों को पार लगा हुई. भूमिमाता की आशङ्का से प्राकुल दृष्टि सा जान पड़ती थी ! उस समय हृदय के भीतर यह गीत प्रतिध्वनित होने लगा.- "साधर तराई प्रामार के दिलो तरंग (हमारी प्रिय नाब का किसने तरंगों में डाल दिया है ? ) जहाज़ बम्बई बन्दर का नाँध गया । भासिला तरी सन्ध्याचटा. भाविटाम अल-बटा मधुर बहिवं वायु भयं जाबा रंग । ( सन्ध्या के समय हमारी नाव समुद्र में चला, हमने सोचा कि यह जलकोड़ा है। धीरे धीरे वायु चलेगा और आनन्द होगा ! ) परन्तु इस सी-सिकनेस ( समुद्री रोग) का किसनं ग्वयाल किया था। समुद्र का जल हर से नाला हो गया और तरङ्गो न जहाज़ कं साथ टकरा कर भारी हलचल मचा दी । मैंने देखा कि वह समुद्र के लिए तो जलक्रीड़ा है, पर हम लोगों के लिए नहीं। ए