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योरप की यात्रा।

मैंने सोचा कि अब अपनी कोठरी में जाकर कंबल ओढ़ कर लेट जाना चाहिए। शीघ्र ही एक केबिन में गया और कन्धे पर का कम्बल एक बिछौने पर रखकर किवाड़े बन्द कर लिये। वहाँ घोर अन्धकार था। मैंने समझा कि लैम्प बुझाकर भैया अपने बिछौने पर सो गये हैं। अपना शारीरिक कष्ट सुना कर उनका हृदय-स्नेह उत्पन्न करने के लिए मैंने कहा―दादा, आप क्या सो गये? उसी समय एक अपरिचित और कर्कश शब्द से एक मनुष्य ने कहा―"हू इज़ दैट!" मैने कहा, अरे! यह तो भैया नहीं हैं। फिर बड़ी नम्रता से पश्चात्ताप प्रकट करके कहा―"महाशय! क्षमा कीजिए, मैं भूल कर यहाँ चला आया हूँ।" फिर उसी स्वर में उत्तर मिला―"आल राइट।" अपना कम्बल कन्धे पर रख कर धीरे धीरे मैं वहाँ से बाहर जाने लगा। परन्तु अँधेरे में दरवाज़े का पता नहीं लगा। मैं इधर उधर घूमने लगा और मेरे धक्के से बक्स, ट्रंक, लाठी, बिछौना, आदि विचित्र पदार्थ खड़ खड़ शब्द करने लगे। मैं हाथों से दरवाज़ा टटोलता फिर रहा था। मूस- दानी में पड़न से मूसों की कैसी दशा होती है, इसका अनुभव इस समय कुछ कुछ किया जा सकता था, पर ससुरी-रोग ने इसको कुछ और अधिक भयानक बना दिया जिससे मामला बेढब हो गया।

न मालुम यह सोवा हुआ मनुष्य क्या समझता होगा। अँधेरें में दूसरे के केबिन में घुस जाना और निकलने का नाम तक न लेना; और दस मिनट तक सब वस्तुओं का टटोल कर खड़ खड़ करते घुमना―क्या यह किसी अच्छे घर के भले आदमी का काम