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योरप की यात्रा।

कम्बल उठा लाऊँ। पर ऐसा करने का साहम नहीं हुआ। यदि वे सोये हुए सज्जन फिर जाग पड़े तो? यदि फिर उनसे क्षमा- प्रार्थना करने की आवश्यकता हुई तो क्या वे विश्वास पूर्वक क्षमा कर देंगे? यदि वे क्षमा कर ही दे तो भी एक ही रात में दो बार क्षमा चाहना क्या एक सो रहे विदेशी मनुष्य की खीष्टीय सहन- शीलता पर आघात करना नहीं कहा जायगा? इसके सिवा एक और बड़े भारी भय से हृदय काप उठा। यदि भूल से उस कमरे में चला जाऊँ जिममें दूमरी बार गया था और वहीं उन सज्जन का कम्बल रख आऊँ और वहाँ से कोई वस्त्र उठा लाऊँ तब तो बड़ा ही अनर्थ हो। ऐसा होने पर मैं किससे क्षमा मागूँगा! पहले कमरे में रहने वाले उन सज्जन से क्या कहूँगा, और उस कुलीन महिला को ही क्या कह कर समझाऊँगा। इस प्रकार की अनेक चिन्ताओं के कारण मैं वहीं पड़ा रहा। चुरुट की तीव्र गन्ध से वसा हुआ वह कम्बल भी मेरे ही पास रहा।

२३ अगस्त। प्रातः काल मेरे स्वदेशी मित्र रात भर सुख की नींद सोने के बाद बड़ी प्रसन्नता से डेक ( जहाज़ की छत ) पर उपस्थित हुए। उनके दोनों हाथ पकड़ कर मैंने कहा―भाई, मेरी तो ऐसी ऐसी दशा हुई। सुन कर साथी महाशय मेरी बुद्धि को दोष देने लगे और हँसते हुए उन्होंने एक-दो ऐसे विशेषणों का प्रयोग किया जिन्हें सुनने का अवसर कालेज छोड़ने के पीछे नहीं प्राप्त हुआ था। सारी रात का दुःख और फिर प्रात:काल यह अपमान, सब चुपचाप सहना ही पड़ा। अन्त में साथी महाशय को दया आई, और मेरे केविन के नौकर को उन्हींने बुला दिया।