पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/१३८

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यारप की यात्रा। १२७ मुहन्त को अनन्त और अनान का मुहृत्त के नाम से पुकारते हैं बार अपनी प्रचलित भाषा का अनेक प्रकार की कसरत करने के लिए विवश करते हैं। पर मरी समझ में नहीं आता कि में अपने इन चार दिनों का एक बड़ा मुहर्त कहूँ या इन चार दिनों के एक एक मुहत्त का एक एक युग कहूँ। जा हा. पर इम में तो सन्देह नहीं कि यं चार दिन बड़े कष्ट से बात । मनुष्य एक उन्नत जीव है। इसको बड़े बड़े कष्टों का जो मामना करना पड़ता है उसका कारण भी कोई बड़ा होना चाहिए। मनुष्य के इतने बड़े कष्ट का कारण नैतिक या आध्यात्मिक कोई दोष होना चाहिए । परन्तु सब देखता हूँ कि ा की नरड़ों से जीवात्मा व्याकुल हा गया है. उसकी पीड़ा की सीमा नहीं है. जब यह बात बड़ी ही अनुचित मालूम होती है और यह बात मन में लिए अपमान को भी है । पर जगत के नियमों को दीय दना चित नहीं, यांकि मप किसी को कुछ भी कष्ट नहीं होताः और न जगन के नियमों में किसी प्रकार का कुछ परिवन न होनं हो का प्राशा गाम-कष्ट की जरया पर बहाश पड़ा है। कभी कभी इंक पर में पियाने। काम-मधुर महोत सुनाई पड़ता है। उस समय माजूम हाता है कि इस मर तंग शयन-कारागार के चारों ओर मानन्द का स्रात प्रवाहित हो रहा है। उसी समय दूरवत्ता भारतवर्ष का स्मरण हो पाता है और साथ ही उसका पूर्व मामा पर स्थित सङ्गाजमुम्बर अपने घर का दरय आँखों के प्राग पा जाता है । सुख-स्वास्थ्य और सौन्दर्य स पूर्ण यह संसार बड़ा दूर की एक छाया के समान मालुम I