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विचित्र प्रबन्ध।

होता है। बारबार यही बात हृदय मेँ उठती है कि यह लम्बा मरु- मार्ग नाँघ कर कब मैं वहाँ के जीवन-महोत्सव में सम्मिलित हो सकूँगा। मङ्गलवार के प्रातःकाल शरीर मेँ प्राण के सिवा भौतिक पदार्थ कुछ भी न था। बाहरी सभी पदार्थ निकल गये। उस समय मेरे साथी आये और बहुत धीरज देकर मुझको जहाज़ की छत पर ल गये। वहाँ जाकर एक आराम-कुरसी पर बैठ कर फिर मैं मनुष्य और पृथ्वी के संसर्ग में आकर नवजीवन का आनन्द भोगने लगा।

मैं जहाज़ के यात्रियों का वर्णन करना नहीं चाहता। उनकी स्वप्न में भी यह ख़याल नहीं कि स्याही-भरी कलम की नोक उनके ऊपर अपना तीक्ष्णा लक्ष्य स्थापित कर सकती है। वे बड़े आनन्द से डेक पर घूम रहे हैँ, पियानो बजा रहे हैं, बाज़ा लगा कर हिर-जीत के खेल खेल रहे हैं, और कोई चुरुट पीन के कमरे में बैठे ताश खेल रहे हैं। पर उनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। उस जहाज़ में हम तीन बङ्गाली हैं। तीनों तीन आराम-कुरसी लिये जहाज़ के एक किनारे पर अपना पूरा अधिकार जमाये हुए हैं, और औरों की ओर अत्यन्त उदासीन दृष्टि से देखा करते हैं।

जहाज़ के दिन बहुत बड़े होते हैं। मैं अपने अन्य दोनों साथियों के सामने अपनी कुरसी खींच ले गया और परम्पर के स्वभाव, चरित्र, जीवन-वृत्तान्त तथा सृष्टि के समस्त स्थावर-जङ्गम और स्थूल-सूक्ष्म सत्ता के सम्बन्ध में जिसको जा कहना था उसने वह कह डाला। मेरे साथी मित्र चुरुट के धुएँ तथा अनेक प्रकार की उड़ती हुई कल्पनाओं के संयोग से एक विलक्षण धूम्र-लोक की सृष्टि करते