पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/१४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३१
योरप की यात्रा।

लगे हुए थे। यह बात मुझे बहुत ही अनुचित और बुरी मालूम पड़ती थी। मैं पड़े पड़े यही सोचता था कि ऐसे भी आदमी हैं जिनके विषय में शास्त्रवाक्य और ब्रह्मवाक्य भी नहीं घटते। प्राचीन समुद्र-मन्थन के समय मेरे यह साथी भी समुद्र के किसी भाग में वर्तमान होते तो अवश्य ही लक्ष्मी, चन्द्रमा आदि के समान नीरोग सुस्थ अलौकिक शरीर से समुद्र के ऊपर निकल आते। पर मैं यह कहना नहीं चाहता कि मथनेवाले देवता और असुर दोनों में से ये किसके हिस्से में पड़ते।

समुद्री-रोग से अब पीछा छुट गया है। आज मैं डेक पर बैठा हूँ। शरीर का कष्ट प्रायः दूर हो गया है। समुद्र और अपने साथी के विषय में जो मेरा शास्त्रीय मत और अशास्त्रीय मनोमालिन्य था वह दूर होगया है। यहाँ तक कि इधर मैं उनका कुछ अधिक पक्षपाती भी बन गया हूँ।

इधर कई दिनों से दिन-रात डेक पर ही पड़ा रहता हूँ। घड़ी भर के लिए भी बन्धु-वियोग नहीं हुआ।

२९ अगस्त। आज रात को अदन पहुँचेंगे। वहाँ कल प्रात:- काल जहाज़ बदलना पड़ेगा। समुद्र में कहीं कहीं एक-दो पहाड़ों की रेखा देख पड़ती है।

उजेली रात है। जहाज़ अदन बन्दर पर पहुँच कर ठहर गया। भोजन के बाद एकान्त में बातचीत करने के लिए हम दोनों मित्र डेक के एक किनारे, अपनी अपनी आराम-कुरसी पास पास रखकर, आनन्द से बैठे हैं। समुद्र तरङ्ग हीन स्थिर है। चन्द्रमा का प्रकाश तट की पर्वत-माला पर फैला है। हम लोगों की आँखें