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योरप की यात्रा।

कारण हमीं तीन जन सबसे अधिक दर्शनीय थे। बड़े परिश्रम अपना सामान यथास्थान रखकर जब हम ऊपर डेक पर गये तब एक हज़ार मनुष्यों की दृष्टियाँ एक दम हम लोगों पर पड़ीं। यदि उन दृष्टियों का कोई चिह्न हो सकता तो अवश्य ही हम लोगों के शरीर काले नीले दागों से भर जाते। जहाज़ बहुत बड़ा है। उसकी संगीतशाला और भोजनगृह की दीवारों में संगमर्मर पत्थर जड़े हैँ। बिजली का प्रकाश चारों ओर फैल रहा है, बैण्ड बज रहा है। मानों काई महोत्सव हो रहा है।

बड़ी रात रहते ही जहाज़ वहाँ से चल दिया।

३० अगस्त। इस जहाज़ पर डेक पर दो मंज़िलें के समान एक और डेक था। वह छोटा था और उसपर भीड़ भी कम थी। वहीँ हम लोगों ने अपना डेरा डाला।

हमारे साथी चुप और उदास हैं। मेरी भी वही दशा है। समुद्र-तीर के पहाड़ धूप से मुरझाये और धुँधले देख पड़ते हैँ। मानों मध्याह के आलस्य की छाया पड़ कर अस्पष्ट सी हो गई है।

कभी मैँ कुछ सोचता हूँ, कभी कुछ लिखता हूँ और कभी लड़कों का खेल देखता हूँ। इस जहाज़ में बहुत से छोटे छोटे लड़के और लड़कियाँ हैँ। जहाज़ के समस्त मनुष्यों के बीच चञ्चलता उन्हीं लड़के और लड़कियों में देखी जाती है। उन बच्चों ने अपने जूते और मोज़े खोल कर रख दिये हैँ और हमारे डेक पर कौले-सन्तरे लुढ़का कर खेल रहे हैं। उनकी तीन दासियाँ वहीं वेञ्च पर बैठी हैँ। नीचे मुँह किये चुपचाप कुछ सिलाई का काम कर रही हैं। बीच बीच में सिर उठाकर यात्रियों की अवस्था भी देखती जाती हैं।