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विचित्र प्रबन्ध।

समान वह चारों और बड़े वेग से दौड़ रहा है। लोक-लोकान्तर के नक्षत्र स्थिर होकर वहीं देख रहे हैं और दूर दूर की तरङ्गे क्षोण चन्द्रमा के प्रकाश में अनन्त काल की पुरानी सामगाथा को एक साथ एक स्वर से गा रही हैं।

३ सितम्बर। दस बजने के समय स्वेज़ नहर के मुहाने पर आकर हमारा जहाज़ खड़ा हुआ। वहाँ की सुन्दरता का वर्णन करना कठिन है। चारों और विचित्र रङ्ग का तमाशा देख पड़ता है। पहाड़ पर धूप, छाँह और नीली भाप देख पड़ती है। घने नीलेरङ्ग कं समुद्र के किनारे बालुका-मय तट की पीली रेखा नज़र आती है। उस पर धूप पड़ने से उधर देखना कठिन हो रहा है।

आज दिन भर से जहाज़ नहर मेँ धीरे धीरे जा रहा है। दोनों ओर बालू ही बालू दिखाई देती है, वृक्षों का नाम नहीं है। कहीं कहीं छोटे छोटे इंटों के घर, और बड़े यत्न से बढ़ाये गये वृक्ष, देखने में बहुत ही सुन्दर मालूम होते हैं।

बहुत रात बीतने पर आधे चन्द्रमा का उदय हुआ। चन्द्रमा का प्रकाश मलिन है, इससे दोनों किनारोँ पर कुछ भी साफ़ साफ़ नहीं देख पड़ता। रात को दा तीन बजने के समय जहाज़ सैयद बन्दर पर पहुँचा। वहीं उसने लङ्गर डाल दिया।

४ सितम्बर। इस समय हम लोग भूमध्य सागर में हैं। अब हम लोग योरप की सीमा में पहुँच गये। हवा भी अधिक ठण्ढे मालूम होती है और समुद्र का रङ्ग भी गाढ़ा नीला है। आज रात को डेक के ऊपर नहीं सो सके।

६ सितम्बर। भोजन के कमरे में खुली खिड़की के पास बैठकर