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योरप की यात्रा।

की इस पथरीली भूमि में मनुष्यों ने बड़े परिश्रम से प्रकृति को वश में कर लिया है। यहाँ की थोड़ी थोड़ी भूमि में भी मनुष्यों के प्रबल प्रयत्न के चिह्न पाये जाते हैं। इस देश के लोग अपने देश को प्राणों से भी अधिक चाहें तो इसमेँ कुछ आश्चर्य की बात नहीं। यहाँ के निवासियों ने अपने प्रयत्न से इस देश को अपना बना लिया है। यहाँ मनुष्य और प्रकृति के बीच में बहुत दिनों से एक प्रकार का समझौता चला आता है। इन दोनों में परस्पर लेन- देन का व्यवहार चला आता है। ये आपस में ख़ूब परिचित हैं और इनका सम्बन्ध भी घनिष्ठ है। भारतवर्ष में प्रकृति उदासीन रूप से खड़ी है और वैराग्य-वृद्ध मनुष्यों का उधर कुछ भी ध्यान नहीं है। परन्तु योरप में यह बात नहीं। योरपवाले अपने देश की भूमि का ही अपनी साधना का क्षेत्र समझते हैं। ये सदा अपनी भूमि का आदर करते हैं। इसके लिए यदि ये प्राण न देंगे तो फिर प्राण देने की वस्तु कौन सी होगी! इस भूमि के प्रति तिल मात्र भी यदि कोई हस्तक्षेप करे तो वह इन्हें सह्य नहीं हो सकता।

किन्तु यह कैसा सुन्दर चित्र है! पर्वत की गोद मेँ नदी के तीर पर झील के समीप फले हुए पाप्लर और विलो वृक्षों की क़तार है। निष्कण्टक निरापद नीरोग फल-शस्य-पूर्ण प्रकृति प्रतिक्षण मनुष्यों से आदर पा रही है और आप उससे दुगना मनुष्यों का आदर करती है। मनुष्य के ऐसे प्राणी के रहने का यही तो उत्तम स्थान है। मनुष्य का प्रेम और उसकी शक्ति यदि अपने चारों ओर को सुन्दर, संयत और समुज्वल न बना सके तो उसमें और वृक्षों के छेदों तथा गिरि-गुहाओं में रहनेवाले वन-जन्तुओं में क्या अन्तर है?

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