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विचित्र प्रबन्धन।

९ सितम्बर। रास्ते में पेरिस उत्तर जाने के लिए हम लोगों मेँ सलाह हो रही है। रात को दो बजने के समय हम लोग जगा दिये गये। यहाँ गाड़ी बदलनी पड़ेगी। सामान बाँध कर हम लोग गाड़ी से उतर गये। विकट जाड़ा है। थोड़ी ही दूर पर हम लोगों के लिए गाड़ी खड़ी है। उसमें एक एञ्जिन, एक फ़र्स्ट क्लास और एक ब्रेकवान है। इसके सिवा उस गाड़ी में और कोई डब्बा नहीं है। जानेवालों में हम लोग तीन भारतवासी है। तीन बजने के समय पेरिस के जन-शून्य स्टेशन पर गाड़ी पहुँची। आँख मलते हुए एक दो मनुष्य हाथ में रोशनी लिये खड़े थे। बड़े परिश्रम से सोये हुए कस्टम-हाउस ( चुँगीघर ) के कर्मचारियों को उठाया। उनकी जाँच से छुटकारा पाकर हम लोगों ने किराये की एक गाड़ी की। इस समय पेरिस नगरी अपने समस्त द्वार बन्द करके तथा सन्नाटे से भरी सड़कों पर दीपमाला को जलता हुआ छोड़कर सो रही है। हम लोग होटल में गये। वहाँ हम लोगों ने अपन शयन-गृह में प्रवेश किया। शयन-गृह की सफ़ाई और ढङ्ग देखने ही योग्य है। बिजली की रोशनी हो रही है। बिल्लौर पत्थर जड़ा हुआ है। कार्पेट बिछा हुआ है। दीवारें चित्रित हैं। नीला पर्दा पड़ा हुआ है। हंस के पर के समान श्वेत और कोमल शय्या है।

कपड़े उतार कर हम लोग सोने का प्रबन्ध करने लगे। उस समय मालूम हुआ कि हम लोगों के सामान के साथ किसी का ओवरकोट आ गया है। हम तीनों ही आदमी एक दुसरे के सामान का पहचानते नहीं हैं। अतएव कोई अनजानी वस्तु जब हाथ में पड़ती है उस समय, हम तीनों ही उस वस्तु को अपने सामान में