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विचित्र प्रबन्ध।

लोगों से मिलने के लिए इस संसार में कोई भी निश्चित स्थान नहीं है। खड़े खड़े मैं यही सब सोच रहा था। उसी समय मकान के मालिक बाहर निकल आये। उन्होंने पूछा―"तुम लोग कौन हो?" मैंने प्रणाम करके उत्तर दिया कि हम विदेशी हैं। मैं इस समय इस बात को कैसे कह सकता था कि एक समय यह मकान मेरा या हम लोगों का था। एक बार इच्छा हुई कि भीतर जाकर उस बाग़ को देख आऊँ। मेरे लगाये वे वृक्ष कितने बड़े हुए हैं। और ऊपर वाला दक्षिण-मुँह का कोठा, और वह कमरा, जिसके सामने बरामदे में टूटे हुए टव में कई जीर्ण वृक्ष लगे हुए थे―यह सब जाकर देय आऊँ। वे पेड़ इतने बेकार थे कि शायद आज तक ज्यों के त्यों पड़े होगे; उन्हें वहाँ से हटाने की ओर किसी का ध्यान न गया होगा।

और अधिक देर तक कल्पना करने का अवसर नहीं मिला। लन्दन में सुरंग की राह से नीचे नीचे जो रेलगाड़ी दौड़ती है उसी पर चढ़ कर, जहाँ ठहरे थे वहाँ, लौट आने का विचार हम लोगों ने किया। परन्तु पीछे मालुम हुआ कि इस संसार में सभी प्रयत्न सफल नहीं होते। हम दोनों भाई एक गाड़ी में निश्चिन्त बैठे थे। इतने में हैमरस्मिथ नाम के एक दूर के स्टेशन पर गाड़ी जाकर खड़ी हुई। उस समय हम लोगों के निर्भय हृदय में कुछ भय का सञ्चार हुआ। एक मनुष्य से पूछने पर मालूम हुआ कि हम लोगों को जिधर जाना है यह गाड़ी उधर नहीं जाती। तीन चार स्टेशन लौट कर दूसरी गाड़ी पर चढ़ना चाहिए। तब हमलोगों ने वैसा ही किया। अन्त को हम लोग उस स्टेशन पर पहुँचे जहाँ