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विचित्र प्रबन्ध।

बंगाली इस समय लोक-समाज में बाहर निकले हैं। पर कठिनता यह है कि संसार की मृत्यु-शाला से उन्हें कोई 'पास' नहीं मिला है। अतएव उनकी बातचीत चाहे जितनी बड़ी हो, किन्तु किसी के निकट आदर पाने का वे दावा नहीं कर सकते। यही कारण है कि अाज उनकी डींग की बातें बिल्कुल बेसुरी मालूम पड़ती हैं। बिना मरे इसका संशोधन हाना कठिन है।

अपने पूर्व पुरुषों के विरुद्ध हमारा यही अभियोग है। उन लोगों को एक न एक दिन तो मरना पड़ा ही, तो फिर वे भले-बुरे किसी अवसर पर यथोचित रीति से क्यों नहीं मरे? यदि वे मरते––प्राण देने––तो उत्तराधिकार-सम्बन्ध से आज हम भी अपनी मरने की शक्ति पर भरोसा कर सकते। उन लोगों ने अनेक कष्ट उठाये, इसलिए कि हमारे पुत्र-पौत्र आदि सुखी हों, वे अपना पेट काट कर अपनी सन्तानों के लिए खाने का सुभीता कर गये हैं, परन्तु वे मृत्यु से प्रेम करने का आदर्श नहीं छोड़ गये। इतना बड़ा दुर्भाग्य और इतनी बड़ी दीनता और क्या हो सकती है!

अँगरेज़ लोग हमारे देश की वीर जातियों को बुलाकर कहते हैं कि तुमने युद्ध किये हैं, प्राण देना जानते हो। जो कभी लड़े नहीं, जिन्हें केवल बकवाद करने का ही अभ्यास है, उनके दल में मिल कर तुम कांग्रेस में क्यों शरीक होगे!

इसका उत्तर तर्क के द्वारा दिया जा सकता है। परन्तु तर्क से अपमान दूर नहीं होता, तर्क लाज नहीं रखता। संसार के विश्वकर्मा नैयायिक नहीं थे। इसी से पृथ्वा पर पग पग पर