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विचित्र प्रबन्ध।

है और समुद्र का जल अग्नि के समान प्रतीत हो रहा है। इसी समय सूर्य भी अस्ताचल का चले गये। बाईं और सूर्यास्त होने के पहले ही से चन्द्रोदय हो गया है। जहाज़ से पूर्व की ओर चन्द्रमा की किरणें समुद्र में पड़ कर विलक्षण शोभा धारण कर रही हैं। नील समुद्र पर पुर्णिमा की सन्ध्या अपना प्रकाश फैला रही है और हम लोगों को उस प्राचीन प्रकाश-मय भारतवर्ष का मार्ग बताला रही हैं।

जहाज़ के डेक पर और प्रत्येक कमरे में बिजली की रोशनी हो गई। छः बजने के समय सन्ध्या के भोजन के लिए घंटा बजा। आध घंटे के पीछे दूसरा घंटा बजा। सब लोग भोजन-गृह में गये और क़तार की क़तार स्त्री-पुरुष बैट गये। काई काले कपड़े पहने है, कोई रंगीन। और, किसी का शुभ्र वक्ष आधा खुला हुआ है। ऊपर क़तार की क़तार बिजली की रोशनी जगमगा रही है। धीमी बातचीत के साथ काँटे और चम्मच का ठन् ठन् ठन् टन शब्द हो रहा है और भोजन की विचित्र सामग्रियाँ नौकरों के हाथ से नीरव जल-प्रवाह की तरह आ-जा रही हैं

भोजन के बाद डेक पर जाकर लोग ठंढी हवा खाने लगे। कहीं अँधेरे में एक कोने पर कुरसी रख कर युवक-युवती आपस में बातें कर रहे हैं। कहीं दो साथी जहाज़ के बरामदे पर खड़े हो कर झुके हुए गुपचुप बातों मेँ लगे हुए हैं। कोई कोई जोड़ी बात- चीत करती हुई डेक के प्रकाश और अन्धकार के बीच होकर जाती हुई कभी देख पड़ती है और कभी ग़ायब हो जाती है। कहीं पाँच-सात स्त्री-पुरुष और जहाज़ के कर्मचारी जमा होकर आमाद-प्रमोद कर रहे हैं। कभी कभी वे बड़े ज़ोर से हँसने लगते हैं। आलसी