पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/१८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७५
पञ्चभूत।

कोई बात कहती हैँ और न कोई युक्ति ही बतलाती हैं, केवल बार बार यही कहती हैं―नहीं नहीं, यह बात ठीक नहीं है। हम अनावश्यक वस्तुओं से प्रेम करती हैं अतएव अनावश्यक वस्तु भी हमारी समझ से आवश्यक ही है। अनावश्यक वस्तुओं से हमारा कोई लाभ नहीं होता, तथापि उनपर हमारा स्नेह है। वे हमारे स्नेह, प्रेम, दया तथा स्वार्थ त्याग की इच्छा को उत्तेजित करती हैं। पृथिवी को क्या उन प्रेम और स्नेह आदि की आव- श्यकता नहीं है? श्रीमती नदी की बातों को सुन कर श्रीमती क्षिति गद्गद हो गई। क्या वे युक्ति-पूर्ण उत्तर द्वारा श्रीमती नदी को परास्त कर सकती हैँ?

श्रीयुत तेज ( इनका मैँ दीप्ति नाम से लिखूँगा ) स्नान से निकाली तलवार के समान चमकते हुए उठे और उन्होंने अपने तीक्ष्ण और सुन्दर स्वर में क्षिति से कहा―छिः, तुम समझती हो कि इस संसार में सब काम अकेले मैं ही करती हूँ। तुम जिन पदार्थों को अनावश्यक समझ कर निकाल बाहर करना चाहती हो वे ही पदार्थ हम लोगों के लिए आवश्यक हो सकते हैं। तुम आचार-व्यवहार, बातचीत, विश्वास, शिक्षा तथा शरीर से भी अलङ्कार को हटा देना चाहती हो। क्योंकि सभ्यता के अधिक बढ़ जाने से स्थान और समय की बड़ी कमी हो गई है। पर इन अलङ्कारों को दूर कर देने से हम लोगों के बहुतेरे पुराने काम बन्द हो जायेंगे। हम लोग कितने प्रयत्न, कितने आयाम, कितनी शिष्टता, कितनी मधुरता आदि से अच्छे अवसर ढूँढ़त हैं और अपना संसार चलाते हैं। हम लोग मीठी हँसी हँसते हैं,