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पञ्चभूत।

भारत के महर्षियों ने क्षुधा, तृष्णा, शीत, ग्रीष्म आदि द्वन्द्वों की उपेक्षा का उपदेश देकर स्वाधीनता का प्रचार किया है। बाहरी पदार्थों को विशेष आवश्यक समझना जीवात्मा का अपमान करना है। यदि सभ्यता के सर्वोच्च सिंहासन पर आवश्यकता का ही अभिषेक किया जाय और दूसरे किसी 'प्रधान' की सत्ता स्वीकार न की जाय तो वह सभ्यता सम्पूर्ण सर्वोच्च सभ्यता नहीं कही जा सकती। वह सभ्यता अधूरी है।

श्रीयुत व्योम की बातें किसी ने भी ध्यान-पूर्वक नहीं सुनीं। परन्तु व्योम के मन में कष्ट न हो, इस भय से श्रीमती नदी सुनने में सावधानता दिखा रही थीं। नदी के मन में व्योम की बातों का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा था। नदी उसे पागल समझ कर उस पर दया करती थी। परन्तु व्योम की बातों को तेज नहीं सह सके। वे बीच ही में व्योम की वात काट देना चाहते थे। व्योम की बातों का यथार्थ भाव न समझ सकने के कारण तेज का उनपर आन्तरिक विद्वेष है।

परन्तु मैं श्रीयुत व्योम की बातों को उड़ा देना नहीं चाहता। मैंने उनसे कहा―प्राचीन ऋषियों ने तपस्या के द्वारा जो सुभीता अपने लिए किया था, विज्ञान उसी सुभीते का सर्व-साधारण में प्रचार करता है। वह उस सुभीते से लाभ उठाने का सर्व-साधा- रण को अवसर देता है। भूख, प्यास, जाड़ा, गर्मी तथा मनुष्य के प्रति जड़-पदार्थों के और भी जो अनेक प्रकार के अत्याचार हैं, उन्हीं अत्याचारों को दूर करना विज्ञान का उद्देश्य है। विज्ञान जड़-पदार्थों के भय से उनसे पीछा छुड़ा कर वन में जाने और वहाँ

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