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विचित्र प्रबन्ध।

किसी भी देश मेँ सभी निर्भय होकर स्वेच्छा से नहीं मरते। प्रसन्नता से स्वेच्छापूर्वक मृत्यु को आलिङ्गन करनेवालों की संख्या सभी देशों में थोड़ी होती है। शेष लोगों में से कोई दल के साथ मरता है, कोई लज्जा के मारे मरता है और कोई रीति-रवाज के लिए मरने को विवश होता है।

मन से भय बिल्कुल नहीं जाता, तथापि डरने में स्वयं अपने तथा दूसरों के आगे लज्जा करनी चाहिए। बचपन से ही बच्चों को ऐसी शिक्षा देनी चाहिए जिससे वे भय पाते ही उसे अनायास स्वीकार न कर सकें। ऐसी शिक्षा मिलने से मनुष्य लोकलज्जा में पड़कर साहस करता है। अगर मिथ्या गर्व ही करना है तो 'मुझ में साहस है' यह मिथ्या गर्व ही सब से अच्छा है। क्योंकि चाहे दीनता कहो, चाहे अज्ञता कहो, चाहे मूढ़ता कहो, मनुष्य-चरित्र में भय के बराबर छोटी चीज़ और नहीं है। 'भय नहीं है' यह कह कर जो मनुष्य मिथ्या अहङ्कार भी करता है, उसमें कम से कम लज्जा होने का सद्गुण तो प्रमाणित होता है।

जहाँ निर्भयता नहीं है वहाँ लज्जा का नाम भी काम आता है। साहस के समान लज्जा से भी मनुष्य में बल आता है। लोकलज्जा में पड़कर प्राण त्याग करना कुछ असंभव नहीं।

अतएव यह बात भी स्वीकार की जा सकती है कि हमारी पितामही-प्रपितामही आदि में से किसी किसी ने लोक-लज्जा से भी अपने प्राण दे दिये हैं। हम लोगों को यह बात स्मरण रखनी होगी कि उन लोगों में प्राण देने की शक्ति थी; चाहे वह शक्ति उन्हें