पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/१९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१८१
पञ्चभूत।

नदी न मालूम क्या कहने के लिए इधर उधर कर रही है, इसी समय यदि मेरी वक्तृता शुरू हो जाती तो अवश्य ही उनको रुक जाना पड़ता। अतएव मैंने चुप रहना ही उचित समझा। थोड़ी देर के बाद वह बोली―सुनो भाई, मैं तो इस विषय में यह समझती हूँ कि प्रतिदिन हम लोगों को जो अनुभव प्राप्त होता है वह यथार्थ रूप से लिखा नहीं जा सकता। लिखने से उसकी यथार्थता जाती रहती है। हम लोगों के सुख-दुःख, राग-द्वेष आदि एक सामान्य कारण से भी बहुत बढ़ जाते हैं। कभी कभी तो ऐसा भी देखा जाता है कि जिसको हम लोग बराबर सहते रहते हैं वहीं एक दिन असह्य हो जाता है। जो अपराध नहीं है उसी को एक दिन हम लोग अपराध समझने लगते हैं। एक साधारण कारण से उत्पन्न हुआ दुःख भी कभी कभी हम लोगों के लिए बड़ा भारी दुःख हो जाता है। हम लोग उस छोटे से दुःख के लिए बहुत महत्व देने लग जाते हैं। कभी कभी हम लोगों की तबियत अच्छी न रहने के कारण भी हम लोग दूसरों के साथ अन्याय विचार कर बैठते हैं। उसमें जो अपरिमित होता है, जो सचमुच अन्याय और असत्य होता है वही धीरे धीर हम लोगों के मन से हट जाता है। इस प्रकार की कितनी ही जीवन की अधिकताएँ दूर हो जाती हैं, शेष रहता है केवल जीवन का साधारण भाव। उसी पर हम लोगों का पूर्ण और सच्चा अधिकार है। इसके सिवा और भी अनेक बातें अर्ध-व्यक्त आकार से हम लोगों के हृदय में पैदा होती और लीन होजाती हैं। पर उन सबका प्रकाशित किया जाना आवश्यक नहीं। क्योंकि वैसा करने से मन की सुकुमारता में