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विचित्र प्रबन्ध।

धब्बा लगने का भय है। डायरी लिखने के लिए हम लोग अपने जीवन की तुच्छता को बनावटी उपायों द्वारा बहुत बड़ा बना लेते हैं और बहुत सी कच्ची बातों को प्रकट करने का प्रयत्न करते हैं। पर उसका फल यह होता है कि या तो वे बातें नष्ट ही हो जाती हैं या विकृत हो जाती हैं।

सहसा नदी को चेतना हुई। वह बहुत देर से बोल रही है और वह भी ओजस्विता के साथ। इस कारण उसका मुखमण्डल भी लाल हो गया है। उसने मुँह फेर कर कहा―न मालूम मैं ठीक कह सकी हूँ कि नहीं। मुझे यह भी नहीं मालूम कि मैँने यह बात ठीक ठीक समझी है कि नहीं।

दीप्ति कभी किसी बात में रत्ती भर इधर उधर नहीं करती। वह एक प्रबल उत्तर देने के लिए उद्यत हुई। यह देख कर मैंने कहा―तुमने ठीक समझा है। मैँ भी यही बातें कहनेवाला था। पर मैं इस प्रकार अच्छी तरह कह सकता या नहीं, इस विषय में मुझे भी सन्देह है। श्रीमती दीप्ति की यह बात स्मरण रखना चाहिए कि जिस घर में हम लोग जाते हैं, समय पाकर, उसे हम लोगों को छोड़ना पड़ता है। कमाने में ख़र्च भी करना पड़ता है। जीवन के बहुत से अंशों को भूल कर, छोड़ कर, तथा नष्ट कर, हम लोगों को आगे बढ़ना पड़ता है। प्रत्येक बात, प्रत्येक घटना और प्रत्येक भाव को जो पकड़ कर रखना चाहता है वह महाअभागी है।

दीप्ति ने मुसकुरा कर, हाथ जोड़ कर, कहा―मुझसे यह बड़ा भारी अपराध हो गया कि मैंने आपसे डायरी लिखने के लिए कहा। क्षमा कीजिए, अब कभी ऐसा नहीं कहूँगी।