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पञ्चभूत।

वहाँ शहनाई और ढोलक आदि बज रहे हैं; जिनका शब्द यहाँ तक सुन पड़ता है। शहनाई बहुत ही वेसुरी बज रही है; शहनाईवाले बड़ी बेदर्दी के साथ एक गीत के अन्तरे की आवृत्ति बार बार कर रहे हैं। और ढोलक वाले? उनकी तो बात हो न पूछिए। मालूम होता है, वे एकाएक बिना कारण ही पागल होकर ढोलक पीट रहे हैँ और मानों वायु-जगत् में उलट पलट कर देना चाहते हैं।

नदी ने समझा कि पास ही किसी के यहाँ आज व्याह होने वाला है। अतएव वह बड़ी उमङ्ग से खिड़की खोलकर वृक्षों से घिरे हुए स्थान की ओर बड़ी उत्सुकता के साथ देखने लगी।

घाट पर एक नाव बँधी हुई थी। उस पर मल्लाह बैठा था। मैंने उससे पूछा―क्योंरे, यह बाजा क्यों बजता है? उसने उत्तर दिया कि आज बाबू का पुण्याह है।

व्याह नहीं, पुण्याह है, यह सुनकर नदी कुछ उदास हो गई। वह उस वृक्षों से घिरे हुए ग्राम के मार्ग में कहीं पर पालकी में वर-वेशधारी किशोरावस्था के किसी पुरुष अथवा लज्जा-मण्डिता रक्ताम्बर-धारिणी नव-वधू को देखना चाहती थी।

मैंने कहा―पुण्याह का अर्थ ज़मींदारी के वर्षारम्भ का पहला दिन है। आज सभी असामी, जिसकी जैसी इच्छा तथा हैसियत होगी उसीके अनुसार, कुछ रुपये लेकर बड़े ठाट बाट से बैठे हुए ज़मींदार के नायब के सामने उपस्थित होंगे। वे रुपये माल- गुज़ारी में वसूल नहीं दिये जाते। ऐसा नियम ही नहीं है। आज ज़मींदार की भेंट में रुपयों का दना केवल एक प्रकार का