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पञ्चभूत।

वायु ने कहा―संसार में दीनता की सीमा नहीं है। दीनता के कारण यह मानव-जीवन जीर्ण-शीर्ण और शून्य प्रतीत होता है। मनुष्य का पद चाहे कितना ही ऊँचा क्यों न हो, पर दोनों समय के लिए एक सेर अन्न की चिन्ता उसे करनी ही पड़ती है। थोड़ा सा वस्त्र चाहिए ही। यदि ये सब न मिलें तो उसका रहना भी असम्भव हो जाय। मनुष्य अपने को अविनाशी और अनन्त सम- झता है, पर तम्बाकू की डिबिया या सिगरेट का बक्स भूल जाने पर आकाश-पाताल एक करने लगता है। किसी भी प्रकार क्यों न हो, प्रति दिन के आहार-विहार की सामग्रियाँ उसे एकत्रित करनी ही पड़ेंगी। इसके लिए भी मनुष्य स्वयं लज्जित रहता है। इसी कारण वह सदा सूखे धूलिमय तथा मनुष्यों से परिपूर्ण बाज़ार की तुच्छता को छिपाने का प्रयत्न किया करता है। आहार-विहार, लेने-देन आदि के समयों में मनुष्य की आत्मा अपने सौन्दर्य को विकसित करने का प्रयत्न करती रहती है। वह अपनी आवश्यकता के साथ अपन महत्व का सुन्दर और सुव्यवस्थित सम्बन्ध जोड़ना चाहती है।

मैंने कहा―इसका उदाहरणा यही पुण्याह की भेंट है। एक की भूमि है, और दूसरा उसका मूल्य देता है। इस सूखी व्यवस्था से लज्जित होकर मनुष्य की आत्मा अपनी सुन्दरता को प्रकट करना चाहती है, दोनों में एक आत्मीय सम्बन्ध स्थापित कर देना चाहती है; वह यह जता देना चाहती है कि यह व्यवस्था नहीं है, किन्तु इसमेँ एक प्रेम का बन्धन है, स्वाधीनता है। राजा प्रजा का सम्बन्ध भाव का सम्बन्ध है, और लेना-देना हृदय का कार्य है। मालगुज़ारी के रुपयों और राग-रागिनियों से कोई भी सम्बन्ध नहीं।