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पञ्चभूत।

सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। मनुष्य केवल मनुष्य ही से भाव का सम्बन्ध नहीं स्थापित करता किन्तु उसकी तो सर्वत्र यही नीति रहती है। मनुष्य जब पहले पहल इस पृथिवी पर आया, और दावानल, कुहासा, आँधी आदि के रोकने का कुछ भी प्रबन्ध नहीं कर सका; जब शिव के नन्दी के समान पहाड़ों ने इसका मार्ग रोका और मार्ग रोक कर वे नीलाकाश को स्पर्श करते हुए बीच मार्ग में खड़े हो गये; और स्पर्श करने के अयोग्य―अपनी महिमा में अटल आकाश जब अपनी अमोघ इच्छा से कभी वृष्टि और कभी बज्र बरसाने लगा, तब मनुष्य ने उसे देवता मान लिया, और उसके साथ देवभाव का सम्बन्ध स्थापित कर लिया। नहीं तो अपनी निकास-भूमि प्रकृति के साथ मनुष्य के सम्बन्ध स्थापित होने का और काई भी उपाय नहीं था। अज्ञात-शक्ति प्रकृति को जब उसने अपनी भक्ति से पूर्ण कर दिया तभी उसके आत्मा का गौरव के साथ प्रकृति में रहने का स्थान मिला।

क्षिति ने कहा―ठीक है, मनुष्य का आत्मा अपने गौरव की रक्षा करने के लिए बड़े बड़े उपायों को काम में लाता है। राजा जब स्वेच्छाचारी हो जाता है, किसी प्रकार भी उसके हाथ से प्रजा का छुटकारा होने की सम्भावना नहीं रहती, तब प्रजा उसको देवता मान कर अपनी हीनता के दुख को दूर करने की चेष्टा करती है। जब पुरुष सबल होता है और सब प्रकार से अपना अधिकार स्थापित कर लेता है, तब असहाय स्त्री उसको देवता मान लेती है और उसका स्वार्थ-मय और निष्ठुर अत्याचार― गौरख के साथ किसी प्रकार―सहन करती है तथापि यह बात अवश्य माननी चाहिए