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पञ्चभूत।

बात प्रकाशित होने के पहले ही हम लोगों को इस बात का ज्ञान हो गया था। पुरोहितजी जब तक नहीं आये और उन्होंने हम लोगों को जाति के अनुसार जब तक कोई व्यवस्था नहीं दी, उसके पहले ही हम लोगों ने अपना सब प्रबन्ध ठीक कर लिया।

हम लोगोँ की भाषा में "थैंक" शब्द का कोई प्रतिशब्द नहीं है। इस कारण योरप के कोई काई पण्डित कहते हैं कि हम लोगों में कृतज्ञता नहीं है। पर हमारी दृष्टि में तो ठीक उसके विपरीत ही देख पड़ता है। कृतज्ञता मानने के लिए हमारा हृदय सदा ही व्याकुल रहता है। पशुओं से और जड़ पदार्थों तक से हम लोगों को जो कुछ मिलता है उसको हम स्नेह, दया और उपकार समझते हैं और उसका बदला चुकाने के लिए सदा उत्सुक रहते हैं। जिस जाति के लठबन्द अपनी लाठी को, विद्यार्थी अपनी पुस्तक को और कारीगर अपने यन्त्र आदि को अपनी कृतज्ञता जताने के लिए मन ही मन सजीव बना लेते हैँ, उस जाति के पास यदि एक शब्द न हुआ तो क्या? इससे क्या वह जाति अकृतज्ञ कही जा सकती है!

मैंने कहा―जी हाँ, कही जा सकती है, क्योंकि हम लोग कृतज्ञता की सीमा का उल्लंघन कर गये हैं। हम लोग आपस में निःसङ्कोच हो कर अधिक मात्रा में जो सहायता ग्रहण करते हैँ उसका कारण अकृतज्ञता नहीं है; उसका कारण तो आपस में स्वतन्त्रता का अपेक्षाकृत अभाव ही है। भिक्षुक और दाता, अतिथि और गृहस्थ, आश्रित और आश्रय-दाता, स्वामी और भृत्य, इनका सम्बन्ध स्वाभाविक है। अतएव इनमें कृतज्ञता जताकर ऋण-मुक्त हो जाने की इच्छा नहीँ उत्पन्न होती।