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विचित्र प्रबन्ध।

सूर्यमुखी के सामने नगेन्द्र छिप गया है; रोहिणी और भ्रमर के निकट गोविन्दलाल की भी वही दशा हुई है; ज्योतिर्मयी कपाल- कुण्डला के समीप नवकुमार क्षीण उपग्रह के समान है। प्राचीन बँगला साहित्य में भी यही बात देखी जाती है। 'विद्या-सुन्दर' में यदि किसी का सजीव वर्णन किया गया है तो वह केवल विद्या और मालिन का। सुन्दर के चरित्र में पदार्थ का लेशमात्र नहीं है! कवि-कङ्कण-चण्डी में भी फुल्लरा और खुल्लना का ही प्रकाश देख पड़ता है। व्याध तो बीच में एक प्रकार के लम्बे खम्भे के समान खड़ा है और धनपति तथा उनके पुत्र की तो कोई आवश्यकता समझ ही नहीं पड़ती। बंगसाहित्य में नायक तो महादेव के समान धूल में पड़े हैं और नायिकाएँ उन पर बड़े आनन्द से विराज रही हैं। इसका कारण क्या है?

वायु के इस प्रश्न का उत्तर सुनने के लिए नदी अत्यन्त व्याकुल हो उठी। परन्तु दीप्ति पर इसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। उसने उधर उपेक्षा की दृष्टि की और पास ही पड़ी हुई एक पुस्तक खोल कर पढ़ने लगी।

क्षिति ने कहा―तुमने बंकिम बाबू के उपन्यामों के विषय में जो कहा है सो ठीक नहीं, क्योंकि वे बातें मन से सम्बन्ध रखनेवाली हैं, कार्य से नहीं। मानसिक जगत् में स्त्रियों की प्रधानता हैं और कार्य-जगत् में पुरुषों का प्रभुत्व। जहाँ केवल मानसिक जगत् की बात है, वहाँ स्त्रियों के समान पुरुषों को उच्च आसन नहीं दिया जा सकता। पुरुषों के चरित्र का विकास पूर्ण रूप से कार्य-क्षेत्र ही में होता है।