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पागल

जाने कब अपना आभास दे जाती है। उसे तो आगे से जानकर कोई तैयार नहीं रह सकता। किन्तु जब उसके दर्शन हुए तब ख़ाली हाथ उसका स्वागत नहीं किया जा सकता। उसके स्वागत में लाभ और हानि का विचार जाता रहता है। जो हानि-लाभ का विचार रखता है वह अवश्य ही बड़ा भारी व्यवहार-निपुण मनुष्य है। संसार में इसी प्रकार के मनुष्यों की उन्नति होती है। किन्तु हे अन्धकार-पूर्ण आषाढ़ मास के बीच के एक दिन के प्रकाशमय अवकाश, तुम्हारे इस शुभ्र मेघ-माला-मण्डित क्षणिक अभ्युदय के आगे मैं अपने सब ज़रूरी कामोँ को मिट्टी करता हूँ। आज मैंने भविष्यत् का हिसाव नहीं किया––आज मैं वर्तमान के हाथोँ बिक गया।

दिन पर दिन बीतते हैं। वे मुझसे कुछ भी दावा नहीँ करते। उन दिनोँ हिसाब मेँ, कुछ भी भूल या गड़बड़ नहीं होती,––सब काम सहज ढंग से हुआ करते हैं। तब जीवन एक दिन के साथ दूसरे दिन को––एक काम के साथ दूसरे काम को अच्छी तरह जोड़ कर अग्रसर होता है। सब काम बड़े मज़े में होते रहते हैं। किन्तु एकाएक कोई ख़बर न देकर एक विशेष दिन, सात समुद्र पार के किसी राजपुत्र की तरह, आकर उपस्थित होता है। प्रतिदिन के साथ उसका कोई मेल नहीं होता। तब दम भर में इतने दिनों की सब श्रृङ्गाला बिगड़ जाती है। उस दिन नियमित कामोँ का करना कठिन हो जाता है।

परन्तु यही दिन हमारा बड़ा दिन है। यही अनियम का दिन है, यही काम-काज को मिट्टी करनेवाला दिन है। जो दिन