पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२२१

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विचित्र प्रबन्ध । को कष्ट न होगा ? जहाँ मनुष्यत्व का पूर्ण गौरव वर्तमान है वहाँ मनुष्य ढोंग के बिना भी पूजा जाता है, और जहाँ मनुष्यत्व नहीं है वहाँ बनावटी देव-भाव दिखाना पड़ता है। जिस मनुष्य की संसार में कहीं प्रतिष्ठा नहीं है वह क्या मनुष्य बना रहकर स्त्री से पृजित होने की प्राशा कर सकता है ? पर हम लोग ता सचमुच देवता हैं । इसी कारण सुन्दर और सुकुमार हृदय का हमनं बिना किसी संकोच के अपने कीचड़-भरे चरणों का पाद-पीठ (पाबंदाज) बना लिया है। दीप्ति ने कहा--जिसमें यथार्थ मनुष्यत्व है वह देवता बनकर पूजा लेने की इच्छा नहीं करता । वह ऐसा करना लज्जा की बात समझता है । और, यदि कोई उसकी पूजा करता है तो वह स्वयं पूजा के योग्य बनने का प्रयत्न करता है। परन्तु वङ्गदश में वह बात नहीं है। यहाँ देखा जाता है कि पुरुष निर्लज्जता के साथ अपने देवता होने का ढिंढोरा पीटते हैं। जिसमें जितनी ही थोड़ी योग्यता होती है वह उतना ही अधिक ढिंढोरा पीटता है। आज- कल स्त्रियों को पति-पूजा, पति माहात्म्य समझाने के लिए पुरुष बड़ी ही चेष्टा करते हैं। आज-कल पुरुषों को पूर्ण मात्रा में नैवेदा नहीं दिया जाता, इस कारण वे शङ्कित से जान पड़त हैं। पर यह जो त्रियों को पति-पूजा की विधि सिखाने का प्रयत्न किया जाता है इसकी अपेक्षा पुरुषों को देवता बनने की शिक्षा अधिक लाभकारी होती । पतिदेव की पूजा में आज-कल कमी हो रही है, इस कारण स्त्रियों का उपहास किया जाता है। यदि पुरुषों को छोड़ा भी ज्ञान होता तो वे अवश्य ही अपने इस कर्म से लज्जित हाते ।