पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२३७

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+ २२६ विचित्र प्रबन्ध। नहीं है। किन्तु सम्भव है कि आजकल का यह विचित्र और विलक्षण स्वर-समूह प्रतिभा के प्रभाव से किसी दिन प्रादर्श संगीत के रूप में परिणत हो जाय । तुम्हारे इन कई तारों से उस महान संगीत का स्वरूप दिखाना कठिन ही नहीं, सोलहों पाने असम्भव है। मनुष्य नदी एक दिन प्रातःकाल के समय हाथ में मेरी एक बड़ी पुस्तक लिये मेरे पास आई और वह पुस्तक दिखा कर बोली- यह सब तुमने क्या लिखा है ? जो बातें मैंने कभी नहीं कहीं वही बातें तुमने इसमें मेरे मुँह से क्यों कहलाई हैं ? मैंने कहा-तो इसमें दोष क्या हुआ ? नदी ने कहा---इस तरह की बातें मैं कभी नहीं कहती और कह भी नहीं सकती। यदि तुम मेरे मुँह से वैसी बातें कहलाते जिन्हें मैंने कहा हा या न कहा हो, लेकिन उनका कहना मर लिए सम्भव होता तो मैं कभी लज्जित न होती । पर तुम तो एक पुस्तक ही लिख कर उसे मेरे नाम से चलाना चाहते हो । मैंने कहा---तुमने मेरे सामने क्या और कितना कहा है, सो तुम कैसे समझ सकती हो ? तुमने जो कुछ कहा है और तुम्हारे विषय में जितनी मेरी जानकारी है, दोनों को मिलाने से बहुत बड़ी बड़ी बातें निकल पाती हैं । तुम्हारा जीवन बहुत सी बातों का उपदेश देता है, उसके द्वारा बहुत सी बातें मालूम होती हैं । तुम्हारी उन अव्यक्त और खुद समझ लेने की बातों को मैं कैसे छोड़ सकता हूँ? नदी चुप हो गई। मालूम नहीं, उसने क्या समझा और क्या नहीं समझा। शायद उसने समझ लिया। तथापि मैंने फिर उससे