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पागल।

झोली लिये खड़े रहते हो! तुमने जीवन के सब हिसाब-किताब को नष्ट भ्रष्ट कर डाला है। तुम्हारे नन्दी भृङ्गी आदि गणों के साथ मेरी जान-पहचान है। मैं यह नहीं कह सकता कि आज उन्होंने तुम्हारी भङ्ग का―दो बूँद―प्रसाद मुझे नहीं दिया। उससे मुझे नशा हो गया है। इससे मेरा सब काम गड़बड़ा गया है। आज मेरे किसी भी काम में श्रृङ्खला नहीं है।

यह मैं जानता हूँ कि सुख प्रति दिन की वस्तु है। परन्तु आनन्द प्रतिदिन की सामग्री नहीं है। शरीर में कहीं धूल न लग जाय, इस प्रकार की शङ्का से सुख संकुचित और शङ्कित रहता है। परन्तु आनन्द धूल में लोट-पोट कर सब के साथ, अपने अन्तर को हटा कर, मिल जाता है। अतएव सुख धूल को हेय समझता है और आनन्द के लिए धूल भूषण है। कुछ खो न जाय, इस आशङ्का से सुख सदा भयभीत रहता है। परन्तु आनन्द अपना सर्वस्व लुटाकर तृप्त होता है। इसी कारण सुख के लिए खालीपन ग़रीबी है और आनन्द के लिए दरिद्रता ही ऐश्वर्य है। सुख नियम के बन्धन में रह कर बड़ी सावधानी से अपनी शोभा की रक्षा करता है। परन्तु आनन्द संहार में, मुक्ति में, अपने सौन्दर्य को उदारता के साथ प्रकाशित करता है। सुख बाहर के नियमों में बँधा है, और आनन्द उस बन्धन को तोड़ कर अपने नियमों को आप गढ़ता है। सुख अमृत के लिए ताक लगाये बैठा रहता है और आनन्द दुःख के विष को भी अनायास ही पचा जाता है। इसी कारण सुख को केवल अच्छे पदार्थों का ही पक्षपात है, और आनन्द के लिए भले-बुरे दोनों बराबर हैं।