पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२४२

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1 पञ्चभूत । रूप तो नहीं है। तुम केवल हमारी सार बातें लोगों के सामने रखत हो, पर हमारे मनुष्यत्व की ओर तुम्हारा कुछ भी ध्यान नहीं है। हमारी बेबाक व्यर्थ बातों को शृङ्खलित करकं जो तुमने एक सारवान मूर्ति चित्रित की है उसमें दाँत लगाना दुःसाध्य है । हम लोग कुछ बुद्धिमान मनुष्यों से प्रशंसित होना नहीं चाहते। हमारी इच्छा सर्वसाधारण से परिचित होने और उन्हींमें रहने की है। मैंने पूछा-इसके लिए क्या करना चाहिए ? वायु नं कहा--यह बात मुझे मालूम नहीं, मैंने दोष बतला दिया। जैसा मेरा सारांश है वैसा ही स्वाद भी है। सम्भव है, सार की मनुष्यों को अधिक आवश्यकता हो । परन्तु स्वाद प्रिय है। मैं यह नहीं चाहता कि मनुष्य हमारे विषय में तर्क-वितर्क करें अथवा अपना मतामत प्रकाशित करें। मेरी इच्छा केवल यही है कि मनुष्य मुझे पहचानें । भ्रम-पूर्ण, परन्तु स्पृहणीय, मनुष्य- जन्म छोड़ कर किसी मासिक-पत्र के भ्रम-रहित प्रबन्ध का जन्म लेना मेरी इच्छा के प्रतिकूल है। मैं दार्शनिक तत्व नहीं हूँ, न छपी हुई पुस्तक ही हूँ और न तर्क की युक्ति या कुयुक्ति ही ! मेरे मित्र, मेरे बान्धव, जो मुझको सदा समझते हैं मैं हूँ भी वही । व्याम अभी तक चुपचाप बैठा था। एक कुरसी पर बैठकर, दूसरी कुरसी पर पैर फैलाये, वह बड़ी गम्भीरता से बैठा था । वह बोला-तर्क हो चाहे तत्त्व, ये सब अन्त में सिद्धान्त अथवा उप- संहार के रूप में परिणत होते हैं। सिद्धान्त का रूप पाना ही इनके लिए बड़े गौरव की बात है। पर मनुष्य एक स्वतन्त्र पदार्थ है। अम- रता-समाप्ति न होना ही इसकी मुख्य यथार्थता है। बिना