पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२४७

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२३६ विचित्र प्रबन्ध । जाते हैं, वहाँ तू देखेगा कि उन्हींके मरल विश्वास, निरन्तर सेवा और आत्मानपेक्ष आत्मत्याग के ऊपर यह संसार प्रतिष्ठित है। भीष्म, द्रोण, भीम, अर्जुन आदि महाकाव्य के नायक हैं, किन्तु हम लोगों के छोटे छोटे कुरुक्षेत्र में उनके प्रात्मीय स्वजाति हैं । उस आत्मीयता का कौन नव-द्वैपायन प्राविकार और प्रकाश करेंगे ! मैंने कहा- उनका आविष्कार न होने से ऐसा हानि-लाभ ही क्या है ? मनुष्य यदि आपम में एक दूसरे को न पहचानेगा तो वह प्रेम कैसे कर सकता है। एक युवक था, जो अपने जन्म- स्थान और परिवार से बहुत दूर रहकर दस रुपये महीन पर क्लर्की किया करता था । मैं उसका मालिक था । पर उसके बारे में मुझे प्रायः कुछ भी नहीं मालूम था। वह एक माधारण मनुष्य था। एक दिन महसा रात को उसे हैज़ा हो गया । मैंने अपने सोने के कमरे से सुना कि वह चुना बुआ कह कर कातर स्वर से रो रहा है । उस समय उसका क्षुद्र और गौरव हीन जोवन महान मालूम हुआ। उस अनजान और अप्रसिद्ध मूर्ख मनुष्य का--जो अपनी गर्दन हिला- हिला कर दिन भर लिया करता था- उनकी सन्तानहान और विधवा बुअा ने अपने सार नह से मनुष्य बनाया था। वह मन्ध्या के समय अपनी सूनी कोठरी में चूल्हा जलाकर अपने हाथ से रसोई बनाने लगता था । जब तक उसकी रसोई बनती रहती थी तब तक एकटक अग्नि की ओर देखता हुआ वह क्या अपनी बुमा का ध्यान नहीं करता था ? एक दिन लिखने में वह ग़लती कर गया, ठीक ठीक नकल नहीं की, इस कारण उसके ऊपर के कर्मचारियों ने उसे फटकारा । ता क्या उस दिन प्रात:काल के पत्र में