पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२४९

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२३८ विचित्र प्रबन्ध। उसकी बात सुनने से मुझे अपना हिन्दुस्तानी नौकर कल्लू याद आता है। दो छोटे बच्चे छोड़ कर अभी उसकी स्त्री मर गई हैं । इस समय वह अपना सब काम करता है, दोनों समय पंखा खींचता है, पर बहुत ही दुबला-पतला हो गया है । उसको जब मैं देखती हूँ तो कष्ट होता है। लेकिन इस अकल के लिए हो कष्ट नहीं होता, और कष्ट होता किस लिए है ? मैं ठीक ठीक समझा नहीं सकती, पर ऐसा मालूम होता है कि समस्त मनुष्यों के लिए मनुष्य को कष्ट होता है। मैंने कहा-इसका कारण यह है कि सभी मनुष्य प्रेम करते हैं और विरह तथा मृत्यु के द्वारा पीड़ित और भयभीत हैं। तुम्हार इस पंखेवाले नौकर के मुख पर सार संसार के मनुन्या के दुःख की छाया पड़ती है। नदी ने कहा-..-कंवल इतना ही नहीं है। मुझको ता मालूम होता है कि पृथिवी में जितने दुःग्य हैं, उतनी दया नहीं है । यहाँ कितने ही दुःख ता ऐसे हैं जिनका आश्वासन कहीं और कभी नहीं होता तथा ऐसे भी कितने ही स्थान है जहाँ प्रेम की अनावश्यक अधिकता देखी जाती है। मैं देखती हूँ कि धैर्य-पूर्वक और चुपचाप हमारा नौकर पंखा खींच रहा है, उसके बच्चे इधर उधर खेल रहे हैं, इतने ही में कहीं कोई लड़का गिर गया और वह चिल्ला कर रोने लगा | तो उसका बाप दूर से ही रोने का कारण पूछत्ता है पर पंखा खींचना छोड़ कर वह उस लड़के को चुप कराने के लिए-उसे पाश्वासित करने के लिए उसके पास नहीं जा सकता; इससे स्पष्ट है कि संसार में आनन्द की मात्रा तो कम है