पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२५३

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२४२ विचित्र प्रबन्ध । घुमा फिरा कर उड़ाता हुआ चला जा सकता तो कैसा अच्छा होता! ऐसे ही बिना परिश्रम के मुझमें नई नई रचनाएँ करने की शक्ति होती और इसी प्रकार ताड़ फोड़ कर नष्ट करने की भी शक्ति होती तो क्या कहना था। इस वायु कं चिन्ता नहीं है, चेष्टा नहीं है, लक्ष्य नहीं है; केवल एक नृत्य का आनन्द है, कंवल एक सौन्दर्य का आवेग है, केवल एक जीवन की घुमनी है ! खुलासा मैदान है, खुला आकाश है, और चारों ओर व्याप्त सूर्य का प्रकाश है। इन्हीं के बीच मुट्ठी मुट्ठी भर धूल लेकर इन्द्रजाल की रचना करना एक पागल-हृदय के उदार उल्लास के सिवा और क्या कहा जा सकता है। यदि यह होता तो इसका आनन्द भी समझा जाता। परन्तु पत्थर पर पत्थर रगडने में अविरत परिश्रम करना और उससे श्रान्त होकर किसी विषय में मतामत प्रकाश करना प्रादि से क्या लाभ होता है, यह समझ नहीं पड़ता। इसमें न गति है न प्राति है और न प्राण ही हैं; है केवल कठोर कीर्ति । परन्तु उस कीर्ति को भी कोई काई आदर की दृष्टि से देखते हैं और कोई ता उसकी उपेक्षा हो कर देते हैं। जिसकी जैसी योग्यता होती है वह वैसा करता है। परन्तु इच्छा करने पर भी हम लोग इस काम से विरत नहीं हो सकते। सभ्यता के अनुराध से मनुष्य ने अपने मन नामक एक भाग को बहुत बढ़ा दिया है, उसके अनुसार चलने से मनुष्य का मन प्रबल होगया है । अब यदि मनुष्य उस मन को छोड़ना भी चाहे तो भी मन ही उसको नहीं छोड़ सकता ।