पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२५४

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के समान पञ्चभूत । लिखते लिखते मैंने बाहर की ओर देखा कि एक मनुष्य धूप रोकने के लिए माथे पर चद्दर रक्खे हुए और एक हाथ में दोन में दही लिये रसोई-घर की ओर जा रहा है। वह आदमी मेरा नौकर । उसका नाम है नारायणसिंह । वह हृष्ट-पुष्ट और बलवान है। वह प्रौढ़ और पत्तों से हरे भरे कटहर वृत्त मालूम होता है। इस तरह का मनुष्य बाहरी प्रकृति के माथ ठीक ठीक मिल जाता है। प्रकृति और इसकं बीच में कुछ विशेष अन्तर नहीं जान पड़ता । जगद्धात्री और शस्य-शालिनी पृथिवी माता की गोद में यह मनुष्य बड़े प्रानन्द से रहता है । इसके अंगों में कुछ भी परम्पर-विराध नहीं है। जिस प्रकार मूल से लेकर पल्लव तक कंवल एक ही वृक्ष होता है उसी प्रकार मेरा यह नारा- यामिह भी आदि से अन्त तक नारायणसिंह ही है काई खिलाड़ी देव-बालक इस शरीफ़े के पेड़ को कष्ट देने के लिए यदि मन लगा दे तो इस सरस और हरे वृक्ष के जीवन में बड़ा भारी उपद्रव खड़ा होजाय । तो फिर चिन्ता के कारण इम वृक्ष के हरे पत्ते भूर्ज-पत्र के समान पीले पड़ जायें, और जड़ से लेकर पत्त तक यह वृक्ष वृद्ध के माथे की मुर्रियों के समान होजाय । उस समय वसन्त के आने पर नये नये सुहावने पत्तों से मजित और पुलकित होने का सौभाग्य जाता रहे; उस समय वर्षा के आगमन के पहले गुच्छे के गुच्छे फलन लगे। उस समय दिन भर इसे एक पैर के सहारे खड़े रह कर यही सोचते रहना पड़े कि मुझको इतने ही पत्तं क्यों मिले, मेरे पंख क्यों नहीं हुए । प्राणों पर खेल कर मैं दिन भर सीधा खड़ा रहता हूँ, तो भी मुझे सब 1