पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२५५

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विचित्र प्रबन्ध । बातें देखने को नहीं मिलती । इन दिशाओं के उस पार क्या है, यह बात मैं आज तक न जान सका। आकाश के तारागण जिन वृक्षों की शाखाओं पास चमक रहे हैं उनके समान में भी ऊँचा क्यों न हुआ । मैं कहाँ से आया हूँ, कहाँ जाऊँगा, इस बात का निर्णय जब तक नहीं होगा तब तक मैं अपने पत्तों को गिरा कर शाखाओं को सुग्वा कर और खड़े रहकर ध्यान मैं मग्न रहूँगा। मैं हूँ या नहीं, अथवा हूँ भी और नहीं भी हूँ, इन प्रश्नों का निर्णय जब तक न होगा तब तक मेरा जीवन निरर्थक है। वर्षाकाल के बीतने पर एक दिन सूर्योदय के समय मेरे हृदय में जो अानन्द होता है उस आनन्द को मैं किस प्रकार प्रकाशित करूँगा; शीत ऋतु के बीत जाने पर फागुन के महीने में सन्ध्या के समय जब दक्षिण को हवा मेरे शरीर में लगती है उस दिन एक इच्छा उत्पन्न होती है, वह इच्छा क्या है ? वह किसलिए उत्पन्न होती है, यह बात कौन बतलावेगा ! मन हानं पर वृक्ष भी इसी प्रकार की चिन्ताओं के घर बन जायेंगे भन के मिलने पर यही सब उपद्रव होने लगेंगे ! फूलों का फूलना और रस तथा गूद से परिपूर्ण फलों का लगाना न जाने कहाँ चला गया ! जो है उससे अधिक होने की चेष्टा करना, अच्छी अवस्था चाहना,-जैसा है वैसा न रह कर दूसर प्रकार का होने की इच्छा करना—ऐमा कर देता है कि वह न इधर का रहता है और न उधर का। अन्त में हृदय की व्यथा के कारण उसे एक दिन अपनी सूखी शाखाओं के साथ भूमि पर लोटना ही पड़ता है। यह समाचार पत्रों में छपने का प्रबन्ध है, यह है एक समा-