पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२५७

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२४६ विचित्र प्रबन्ध । कर, वन के भाषाहीन मर्मर शब्द और लहरों की अर्थहीन कल- ध्वनि सुनकर तथा मन-रहित अगाध एवं प्रशान्त प्रकृति में मजन करके कोमल और नियमित हुआ है। यह कहने का साहस कौन कर सकता है कि मन की आग की जलन मिटाने के लिए विशाल फैल हुए इस मन-रहित समुद्र के प्रशान्त और नील जल की आवश्यकता नहीं है ? सच्ची बात मैंने पहले ही कह दी है कि हृदय के सब भावों का मिटा कर हम लोगों के मन ने अपना अधिकार बहुत बढ़ा लिया है। वह इतना बड़ा होगया है कि अब उसके लिए स्थान मिलना भी कठिन होगया है। खान, पहनने, जीवन धारण करने, सुख- स्वाधीनता से रहन आदि के लिए जिन बातों की आवश्यकता है उनसे भी अधिक बातों को मन चाहता है। इस कारण सब आवश्यक कामों कं हो जाने पर भी मन की बहुत सी आकांक्षाएँ बनी रहती हैं। वह बैठे बैठे डायरी लिखा करता है, शास्त्रार्थ करता है, समाचार-पत्रों का संवाद-दाता बनता है। जो बात अनायास समझा जा सकती है उसका कठिन बना देता है, जिसका एक प्रकार से समझना चाहिए उसका कुछ और ही बना देता है। जिस बात का समझना सर्वथा कठिन है उसी बात को समझन के लिए वह प्रयत्न करता है । अधिक क्या कहा जाय, भी बहुत से निन्दित काम करता है। परन्तु हमारं अर्द्ध-सभ्य इम नारायणसिंह का मन बड़ा नहीं हुप्रा । इसका मन इसके शरीर ही के अनुसार है, कुछ भी छोटा- बड़ा नहीं है । इसका मन इसके जीवन की गर्मी-सर्दी, राग-शाक, वह और