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पागल।

लोगों के प्रतिदिन के एकरंगे तुच्छ कार्यों में प्रकाशमान जटाकलाप भयङ्कर रूप लेकर भी दीख पड़ता है। वह भयङ्कर पुरुष, प्रकृति में एक प्रकार के अतर्कित उत्पात और मनुष्य-हृदय में एक असाधारण पाप के रूप के आकार से जग उठता है। उस समय कितने ही सुखमिलन-जाल टूट फूट जाते हैं, कितने ही हृदयों के सम्बन्ध नष्ट भ्रष्ट हो जाते हैं। हे रुद्र, तुम्हारे ललाट की धधकती हुई जिस तृतीय नेत्र की अग्नि-शिखा की केवल चिनगारी से ही अँधेरे घर में प्रकाश हो जाता है, उसी अग्नि-शिखा के द्वारा हज़ारों मनुष्यों के हाहाकार के साथ आधी रात को कभी कभी गृहदाह होते भी देखा जाता है। हाय शम्भु, तुम्हारे नृत्य में तुम्हारे दाहने-बायें पैर के फेकने से संसार में महापुण्य और महापाप ऊपर उछल पड़ते हैं। संसार के ऊपर प्रतिदिन की घटनाओं से जो एक साधारणता का पर्दा पड़ जाता है उसको तुम अच्छे और बुरे दोनों के प्रबल आघातों से छिन्न भिन्न कर देते हो और हृदय के प्रवाह को, जिसकी कोई आशा नहीं ऐसी, उत्तेजना से बराबर तरङ्गित करके शक्ति की नई नई लीलाओं और सृष्टि की नई नई मूर्तियों को प्रकाशित कर देते हो। पागल, तुम्हारे इस रौद्र आनन्द में सम्मिलित होने से हमारा डरा हुआ हृदय विमुख न हो! संहार के रक्त-आकाश के बीच में सूर्य की किरणों से प्रकाशित तुम्हारा तीसरा नेत्र अपने नित्य प्रकाश से हमारे अन्तःकरण को प्रकाशित करे। नाचो पागल, नाचो! तुम्हारे नाचने से आकाश की लाखों करोड़ों योजनों तक व्याप्त उज्ज्वल ताराएँ जब तक घूमती रहेंगी तब तक हमारे हृदय में भय