पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२६२

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पश्चभूत । जोड़ काम कर देता है उसीके प्रति हम लोगों का प्रेम होता है, वही हमारी भक्ति का पात्र है। जो मनुष्य समझ कर चलता है, सावधानी से धनोपार्जन करता है, उससे आवश्यकता पड़ने पर हम लोग ऋण भी लेते हैं परन्तु मन ही मन उसे अच्छा नहीं समझते लेकिन जो खर्चीला है, जो अपने और अपने परिवार के भविष्य की चिन्ता न कर जो पाता है वह खर्च कर देता है, लोग उसे काम पड़ने पर ऋण देते हैं, और अक्सर उससे फिर वसूल होने की आशा भी नहीं रखते। प्रायः हम लोग अविवेचना का--मन के अभाव को ही-उदारता समझते हैं और जो मनुष्य हित-अहित का विचार रखता है, युक्ति-पूर्वक अपने सङ्कल्पित मार्ग पर नियमित चलता है उसकी निखट्ट , कृपण आदि शब्दों से निन्दा करते हैं । मन का अस्तित्व जो भूल सकते हैं उन्हीं को हम लोग मनो- हर समझते हैं, और जिम समय मन का भार नहीं मालूम पड़ता उस समय हम लोगों का आनन्द होता है । नशा से पशु के समान हो जाना अच्छा समझा जाता है। अपनी हानि भले ही हो जाय परन्तु थाड़ी देर के लिए भी मन के पजे से छुटकारा पा जाना बड़े प्रानन्द की बात समझी जाती है। यदि मन हमारा-हमारा अपना-होता और आत्मीय के समान वह व्यवहार करता तो क्या हम लोग उस उपकारी के प्रति इतने अकृतज्ञ हो सकतं, क्या ऐसी सम्भावना की जा सकती है ? बुद्धि की अपेक्षा हम लोग प्रतिभा को उच्च प्रासन देते हैं । इसका कारण क्या है ? बुद्धि के द्वारा प्रतिदिन और प्रतिमूहर्त में हमार हज़ारों काम होते हैं। बुद्धि के बिना सम्भवतः हम लोगों