पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२६८

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पञ्चभूत। २५७ वह सम पर आते ही आप अपनं पूर्ण हो जाता है । बीच में एक स्थिर केन्द्र मानकर आवर्त फैल जाता है अताव उसके समीप जो कोई वस्तु होती है उस वस्तु को वह आवर्त अपना बना लेता है। यह जो बीच का स्थिर केन्द्र है उसका नाम बुद्धि नहीं है । किन्तु वह है एक स्वाभाविक प्राकर्षण-शक्ति-एकता का एक बिन्दु । जब यहाँ मन का आगमन होता है तब यह सुन्दर एकता छिन्न-भिन्न हो जाती है। इतना सुनते ही व्योम अधार हो गया। वह बीच ही में कहने लगा---तुम जिसको एकता का बिन्दु कहते हो उसको मैं प्रात्मा कहता हूँ। उसकी यह प्रकृति है कि वह अपने चारों ओर से पाँच पदार्थों को एकत्रित करकं, उनका सङ्गठित करके, एक बना लेता जिसको तुम मन कहत हो उसका स्वभाव इसके ठीक विप- रीत है। वह जब इन पाँचों पदार्थों के समीप पा जाता है उस समय य पदार्थ बिखर जाते और नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं। अतएव आत्मयोग की पहली सीढ़ी मन को वश में करना है। योग के समस्त तत्त्व मेरे जाने हुए नहीं हैं, परन्तु मैंने सुना है कि योगीगण योग के द्वारा सृष्टि कर सकते हैं। प्रतिभा की सृष्टि भी उसी तरह की होती है। कविगण अपनी स्वाभाविक शक्ति के द्वारा मन को अपने वश में कर लेते हैं और अर्द्ध-प्रचेतन भाव से प्रात्मा के अाकर्षगा के द्वारा भाव, रस, ध्वनि आदि को एक- त्रित करते हैं तथा सङ्गठन जीवन आदि से इसको सजित करके एक रूप में खड़ा कर देते हैं। संसार के प्रसिद्ध मनुष्यों ने बड़े बड़े कार्य किये हैं। उनके 1