पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२७२

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पञ्चभूत । का मेरा नवीन-भावांकुर क्षिति के तीखे उपालम्भ से समूल उखड़ कर नष्ट हो गया। तार्किक विचार के विरुद्ध यदि कोई मत प्रका- शित भी करे तो उससे विशेष घबराने का कोई कारण नहीं रहता, परन्तु भाव-सम्बन्धी बातों के विषय में यदि कोई वाधा उपस्थित हो जाय तो मनुष्य से कुछ करत-धरत नहीं बन पड़ता--- वह घबरा जाता है। क्योंकि भाव की बातें श्रोताओं की महानु- भूति पर ही अवलम्बित रहती हैं । भाव-विषयक बातें यदि श्रोताओं को रुचिकर न हों, यदि वे कह दें कि क्या उन्मत्तता करते हो तो उसका उत्तर--किसी भी युक्ति-शास्त्र में ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलता। इसी कारण पहले के विद्वान भाव की बात शुरू करने के पहले अपनं श्रोताओं को हाथ-पैर जोड़ कर प्रसन्न कर लेते थे । वे कहते थे-"बुद्धिमान मनुष्य पानी को छोड़ कर दृध को ग्रहण करते हैं।" वे अपनी योग्यता स्वीकार करते थे परन्तु उमकं प्रकाश के लिए श्रोताओं की अपेक्षा रखते थे । कभी कभी वे भवभूति के समान प्रारम्भ से ही बड़े दम्भ के द्वारा सबको अपने वश में रखने का प्रयत्न करते थे । परन्तु इतना करने पर भी घर लौट आने पर वे अपने को धिक्कार देते थे और कहते थे--"जिस देश में काँच और मणि एक भाव बिकता है उस देश को नमस्कार है" और देवता से भी प्रार्थना करते थे-“हे चतुरानन, हमारे पापा का और जो फल प्राप देना चाहें, दें, हम उसको प्रसन्नता-पूर्वक सह लेंगे; पर अरसिक के सामने रस की बातें कहना हमारे भाग्य में न लिखना, न लिखना, न लिखना।" सचमुच इस प्रकार की शान्ति इस संमार में दूसरी नहीं है । इस संसार में अरसिक रहे