पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२८०

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पञ्चभूत । माण में नियमित रहती है। घड़ी का पेण्डुलम सदा एक भाव से चलता रहता है। चलने के समय मनुष्य के पैर नपे-तुले अन्तर पर पड़त हैं और सारा शरीर उसकी चाल का ठीक हिसाब से माथ देता है । समुद्र की तरङ्गों में भी एक 'तान' है और पृथिवी एक अलौकिक महाछन्द के द्वारा सूर्य की परिक्रमा किया करती है- व्यामचन्द्र मुझे वीच ही में रोक कर कुछ अपनी बात कहनं लगे। उन्होंने कहा-स्थिति ही यथार्थ में स्वाधीन है। वह अपनी गम्भीरता का कभी त्याग नहीं करती। वह सदा ही अटल और अचल है, पर गति में यह स्वाधीनता नहीं। उसे किसी एक नियम के अधीन हाकर चलना पड़ता है । परन्तु इस सम्बन्ध में लोगों की धारणा भ्रमपूर्ण है। लोग समझते हैं कि स्वतन्त्रता गति है और बन्धन-परतन्त्रता 'स्थिति है। इस समझ का प्रधान कारण यह है कि मन की गति इच्छा है अतएव इच्छानुसार चलने कोही अनभिज्ञ मनुष्य स्वाधीनता समझ लेते हैं। इसका तत्व हमारे प्राचार्यों को मालूम था, वे इच्छा को ही सब प्रकार की गति का कारण समझते थे । वे उसीको सब बन्धनों का मूल समझते थे । इसी कारण उन लोगां न मुक्ति पाने के लिए इच्छा के हाथ-पैर काट कर उसे निश्चल बनाने की आवश्यकता बताई है। शरीर और मन की सब प्रकार की गति को रोक रखना ही ता योग है वायु नं व्याम की पीठ पर हाथ रख कर हँसते हुए कहा- एक मनुष्य कोई बात कह रहा हो तो उसके बीच ही से कुछ कहने लग जाना उसकी बात काट देना है। ।