पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२८५

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विचित्र प्रबन्ध । सब एक उद्देश्य के लिए आपस में मिल जाते हैं। ऐसी सह- योगिता शायद ही और कहीं देख पड़े। काव्य का अभिप्राय नदी ने मुझसे कहा--कच और देवयानी के संवाद की जो कविता तुमने लिखी है वह मैं सुनना चाहती हूँ। यह सुन कर मेरे हृदय में एक प्रकार का अभिमान उत्पन्न हुआ। परन्तु अभिमान-विनाशन मधुसूदन इस समय जागते थे । उनसे मेरा अभिमान नहीं देखा गया। शायद इसी कारण दीप्ति ने कहा---- तुम बुरा न मानना, उस कविता का क्या भाव है और वह क्यों लिखी गई है-यह कुछ मेरी समझ में नहीं आया । सच तो यह है कि वह कविता अच्छी नहीं बनी। मैं चुप रहा । मैं मन ही मन माचन लगा कि यदि यही बातें दीप्ति विनय के साथ कहती तो क्या इससे किसी की कुछ हानि होती, अथवा सत्य का अपलाप हाजाता? मेरी समझ में ना विनय के साथ कहने से कुछ भी हानि न होती। एक और बात है। जिस प्रकार लेखक में दापों का रहना आश्चर्य नहीं है उसी प्रकार पाठको की काव्य-रसज्ञता में न्यूनता होना भी तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । मन ही मन यां सोचने के बाद मैंने कहा-यद्यपि लेखक अपनी रचना को निर्दोष समझता है, पर कभी कभी वह धाया भी खा जाता है । इतिहासों में इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं ! और, समालोचक-गण सदा अभ्रान्त ही होते हैं, उनसे कोई भी भूल नहीं होती, इसके प्रमाण की इतिहासों में कमी नहीं । अर्थात् जैसे लेखक भ्रमपूर्ण होत है, उसी प्रकार समालोचक भी । अतएव इस