पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२८८

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पञ्चभूत । २७७ प्रत्येक परमाणु यो कहते कहते स्वप्न देखनेवालों के समान व्योम अत्यन्त प्रसन्न हो गया । वह उठ कर सीधा बैठ गया और कहने लगा-- यदि इस दृष्टि से देखा तो हर एक आदमी में प्राचीन प्रम का प्रकाश देखा जाता है । देखा, जीव अपनी सङ्गिनी को-प्रबोध और अपने-अनुगत संगिनी को-किम तरह ठगता है ! वह देह के में एक प्रकार की आकांक्षा का भाव उत्पन्न कर देता है। उस आकांक्षा की पूत्ति शरीर के द्वारा नहीं होती। उसकी आँखों के सामने वह जो सौन्दर्य उपस्थित करता है उम सौन्दर्य का अन्त पाना आँखों की शक्ति के बाहर की बात है। इसी से दृष्टि-शक्ति कहती है-"जनम अवधि हम रूप निहारिनु नयन न तिरपित भेला;" शरीर के पास जीव जो मङ्गोत उपस्थित करता है उसको अपने वश में करना श्रवण-शक्ति की शक्ति से बाहर का काम है। अतएव वह व्याकुल होकर कहता है "साई मधुर बोल श्रवणहि सुनलु श्रुतिपथ परस न गेला ।" और यह प्राणों कं द्वारा उत्साहित उसकी सङ्गिनी भी लता के समान हजारां शाखा-प्रशाखाएँ फैला कर, प्रेमोन्मत्त हाकर, उसको आलिङ्गन- पाश में बाँधती है। दह धीरे धीरे जीव को प्रसन्न कर लेती है-बड़े यत्नों से छाया के समान उसके साथ रहती है और उमकी सेवा में कोई भी त्रुटि नहीं होने देती । जीव प्रवास को प्रवास न समझे, उसके सत्कार में कोई कमी न हो, इस पर वह सदा ध्यान रखती है। इस प्रकार प्रेम हान के पीछे एक दिन जीव अपनी अनुरक्त और अनुगत देह-लता का भूमि में लोटती और विलखती हुई छोड़ कर चला जाता है। जाने के समय जीव देह