पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/२८९

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विचित्र प्रबन्ध । से कहता है-'प्रियं, मैं तुमका अपने से अलग नहीं समझता, पर. अाज तुमको अनायास छोड़ कर जाता हूँ।' देह उस समय जीव कं पैर पकड़ कर कहती है,-'प्रिय, यदि तुम्हें अन्त को जाना ही था, यदि तुम मुझको मिट्टी में मिलाकर चले जाना ही चाहते हो तो इतनं दिनों तक अपने प्रेम में मुझको भुला क्यों रक्खा ? अपने प्रेम से मुझको तुमने महिमावती क्यों बनाया ? हाय, मैं तुम्हार योग्य नहीं हूँ, परन्तु एक दिन प्रेम से उन्मत्त होकर मेरे इस एकान्त सान के कमरे में आधी रात के समय अनन्त समुद्र पार होकर तुम आये क्यों ? मेर किस गुगण से तुम मुग्ध हो गये थे ?” परन्तु इन प्रश्नों का उत्तर वह विदेशी कुछ भी नहीं देता और चला जाता है। वही आजन्म-मिलन का विच्छंद है, वहीं कृष्णा की मथुरा-यात्रा का दिन है, वहीं देह के साथ देह-राज कं अन्तिम सम्भाषण का दिन है । ऐसा शोचनीय विरह-दृश्य क्या किसी और प्रेम-काव्य में वर्णन किया गया है। क्षिति की मुग्व-मुद्रा से परिहास की आशङ्का कर व्योम झट- पद बाल उठा-----तुम लोग इसे प्रेम न समझो । तुम लोग समझते हो कि हम एक काल्पनिक कथा कह रहे हैं, परन्तु बात ऐसी नहीं है। इस संसार में यही सबसे पहला प्रेम है । जिस प्रकार जीवन का सबसे पहला प्रेम सब की अपेक्षा प्रबल होता है, उसी प्रकार जगत् का पहला प्रेम भी मत्र की अपेक्षा प्रबल और सरल होता है। यह प्रादि-प्रेम, यह 'काया' का प्रेम जब संसार में पहलं पहल उत्पन्न हुआ उस समय तक संसार में जल और स्थल का विभाग नहीं हुआ था। उस दिन तक भी कोई कवि पैदा नहीं हुआ था और