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पञच्भू।

और देवयानी के संवाद में भी मनुष्य के हृदय की एक पुरानी और साधारण दुःख-गाथा लिखी गई है। जो लोग उस दुःख-गाथा की ओर ध्यान नहीं देते और तात्विक दृष्टि से तत्त्व को ही प्रधानता देना चाहते हैं वे काव्य-रस के अधिकारी नहीं।

वायु ने हँस कर हमको सम्बोधित किया। वह कहने लगा―श्रीमती नदी ने काव्य-रस की सीमा पर से हम लोगों का अधिकार हटा दिया है, वहाँ से इन्होंने हम लोगों को निकाल दिया है। अब कवि इसका उत्तर क्या देते हैं, यही सुनना है।

यह सुन कर नदी लज्जित होगई। वह बार बार वायु के कथन का प्रतिवाद करने लगी।

मैंने कहा―मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि मैं जिस समय यह कविता कर रहा था उस समय तक मैंने कोई भी तात्पर्य नहीं सोचा था। परन्तु आज आप लोगों के विचारों को सुन कर मालूम होता है कि कविता कुछ बुरी नहीं हुई। कोशों में भी उसके अर्थ नहीं समाते हैं। काव्य का यही प्रधान गुण है कि कवि की रचना-शक्ति पाठकों की कल्पना-शक्ति को उत्तेजित कर देती है। कविता पढ़ने के समय सभी पाठक अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार अर्थ करने लगते हैं। कोई उसीसे सुन्दरता, कोई नीति और कोई तत्व का अर्थ निकालते हैं। जैसे आतशबाज़ी में पलीता लगाते हो वह जल उठती है वैसे ही काव्य भी पलीता है। आग लगते ही कोई तो बाण की तरह एकदम आकाश में उड़ जाता है, कोई छछूँ―दर की तरह उछलने लगता है और कोई बमगोले की तरह-गर्जन करता है; पर साधारणत: श्रीमती नदी के विचारों से मेरा कोई विरोध