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रङ्गमञ्च।


उनका सङ्गीत भी ख़ास अपने ही नियम का होता है। बाहरी सङ्गीत की सहायता की वे अवज्ञा के साथ उपेक्षा करते हैं। सङ्गीत भी, जो ऊँची श्रेणी के हैं वे, अपने ही नियम से अपनी बात कहते हैं। वे बातों के लिए कालिदास या मिल्टन के मुँह की ओर नहीं ताकते। वे बहुत ही तुच्छ "तूम-ताना-नाना" को लेकर ही अपना काम बड़े मज़े में पूरा कर लेते हैं। चित्र, सङ्गीत और बातचीत मिला कर ललितकला का एक स्वाँग किया जा सकता है। किन्तु वह एक तरह का खेल––बाज़ार की चीज़––होगा। उसे राजकीय उत्सव का उच्च आसन नहीं दिया जा सकता।

किन्तु श्रव्यकाव्य की अपेक्षा दृश्यकाव्य स्वभाव से ही कुछ कुछ पराधीन हुआ करता है। बाहर की सहायता से ही अपने को सार्थक करने के लिए विशेष रूप से उनकी सृष्टि हुई है। यह बात उसे स्वीकार ही करनी पड़ती है कि दृश्यकाव्य को अभिनय की अपेक्षा है।

पर हम इस बात को नहीं स्वीकार करते। जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री अपने पति को छोड़कर और किसी को नहीं चाहती, उसी प्रकार अच्छा काव्य भावुक (सहृदय) के सिवा और किसी की अपेक्षा नहीं रखता। सभी साहित्य के पढ़नेवाले मन ही मन अभिनय करते हैं। उस अभिनय में जिस काव्य की सुन्दरता प्रकाशित नहीं होती वह काव्य किसी कवि को यशस्वी नहीं बनाता।

बल्कि यह बात कह सकते हो कि अभिनय-विद्या बिलकुल पराधीन है। वह अनाथ है, इस कारण नाटक की प्रतीक्षा में बैठी