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पञ्चभूत।

कता नहीं है। परन्तु कविता के जिस अंश को मध्यस्थ की सहायता के बिना मन ग्रहण नहीं कर सकता, जिस अंश को एक बार छोड़कर मन को दुबारा उसके पास जाना पड़ता है वह कविता प्राञ्जल नहीं है; प्राञ्जलता का उससे कोई सम्बन्ध नहीं। कृष्णनगर के कारीगर की बनाई हुई भिश्ती की मूर्ति अपनी रङ्गीन मशक और अङ्ग-भङ्गी से हम लोगों की इन्द्रियों को अपनी ओर अनायास ही आकर्षित कर सकती है। वह हमारी इन्द्रियों और अभ्यास की सहायता से हम लोगों के मन के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित कर सकती है, पर ग्रीस की बनी पत्थर की मूर्तियाँ ऐसी नहीं हैं। उनमें न रङ्ग है और न चमक-दमक ही। वे स्वयं, बिना किसी की महायता के मन से अपना सम्बन्ध जोड़ती हैं। अतएव वे प्राञ्जल है। प्राञ्जल तो है किन्तु यह काई बात नहीं कि वे सहज भी हैं। वे मूर्तियाँ निस्मार बाहरी उपायों का सहारा नहीं लेतीं, इस कारण उनमें अधिक भाव होना ही चाहिए।

दीनि ने कढ़क कर कहा―आप लोग ग्रीस की पत्थर की मूर्तियों की बात इस समय रहने दें तो अच्छा है। इस विषय की बहुत सी बातें मैंने सुनी हैं और जीती रहूँगी तो और भी बहुत सुनूँगी। अच्छी वस्तुओं का यही दोष हैं कि उन्हें सबकी आँखों के सामने ही रहना पड़ता है और सभी उनके विषय की बातें करते हैं। उस वस्तु का न पर्दा रहता है और न कोई प्रतिष्ठा ही रहती है। उसके विषय में न कोई खोज करता है, न उसके विषय में विचारता है और न उसका ध्यान पूर्वक निरीक्षण ही करता है किन्तु केवल उसके सम्बन्ध की सभी बातें सुनना चाहते हैं। इसी