पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/३०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२९४
विचित्र प्रबन्ध।

मुझे चौकस शिक्षा दी है। अब मैं उच्च पण्डितों के सामने उच्च साहित्य के विषय में मत प्रकाशित करने की बर्बरता नहीं करूँगी।

नदी ने उस अँगरेज़-कवि का नाम लेकर कहा--तुम लोग चाहे जो कहो, तर्क करो, चाहे गालियाँ दो, पर उस कवि की कविता मुझको अच्छी नहीं लगती।

कौतुक-हास्य

सर्दियों का सबेरा है। रास्ते में गुड़-लदी गाड़ियाँ जा रही हैं। प्रातःकाल का कुहासा नहीं रहा, सूर्य की किरणें प्रकाश फैला रही है। उस प्रकाश से शीत भी धीरे धीरे हटता जाता है। वायु चाय पी रहा है। क्षिति समाचारपत्र पढ़ रही है। इसी समय व्योम एक रङ्गीन गुलूवन्द सिर पर लपेटे और मोटी सी लाठी हाथ में लियें वहाँ आकर उपस्थित हुआ।

थोड़ी दूर पर द्वार के पास खड़ी नदी और दीप्ति गलबहियाँ डाले आपस में धीरे धीरे कुछ बातें कर रही हैं तथा न मालूम क्यों हँस रही हैं। वायु और क्षिति दोनों यह समझ रहे थे कि इस विचित्र वेश-धारी व्योम को देख कर ये हँस रही हैं। यही इनकी हँसी का लक्ष्य है।

इसी समय अन्यमनस्क व्योम का भी उन लोगों की हँसी की ओर ध्यान गया। वह अपनी कुरसी को और भी मेरे पास खिसकालाकर बोला―दूर से किसी पुरुष को यह भ्रम हो सकता है कि ये दोनों सखियाँ कोई कौतुक की बातें करती और हँसती है; पर वास्तव में यह बात नहीं है। वह केवल एक माया है। पक्ष-