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पञ्चभूत। २९७

योरप के सभ्य लोग भय या दुःख को प्रकट करने में अपना अपमान समझते और लज्जित होते हैं; और पूर्वीय देशों के वासी हमलोग सभ्य-समाज में कौतुक प्रकाशित करना अनुचित और ओद्धत्य समझते―

वायु ने क्षिति की बात का बीच ही से काट करके कहा,―इसका कारण यह है कि कौतुक से प्रसन्न होने को हम लोग अनुचित समझते हैं। वह बच्चों का काम है। इसी कारण पूर्वीय देशों के सभी लज्जन कौतुक-रस को लड़कपन समझ कर उससे घृणा करते हैं। एक गान में हमने सुना था कि एक दिन श्रीकृष्ण प्रात:काल शय्या से उठ कर हाथ में हुक्का लिये आग लेने को राधिका के कमरे में गये। यह सुनकर वहाँ जितने श्रोता थे वे सब के सब हँस पड़े। हुक्का हाथ में लिये श्रीकृष्ण की कल्पना न तो सुन्दर ही है और न आनन्द-जनक ही, तो भी लोग इसके सुनते ही हँस पड़े और आनन्दित हो गये। क्या यह बड़े आश्चर्य की बात नहीं है? इसी कारण यह चञ्चलता हम सभ्यों के समाज में अच्छी नहीं लगती। इससे केवल शरीर के स्नायुओं का कुछ उत्तेजना मिलती है। लेकिन इससे न तो हम लोगों को कुछ आनन्द मिलता है और न बुद्धि का ही बिकाश होता है। कुछ स्वार्थ-सिद्धि होती हो, सो भी नहीं। अतएव इस अनर्घक छोटे से कारण के द्वारा अपनी बुद्धि को चञ्चल कर देना, धैर्य को नष्ट कर देना, मनस्वी प्राणी के लिए निस्सन्देह लज्जा की बात है।

क्षिति ने विचार कर कहा―यह बात सच्ची है, सम्भवतः किसी कवि की यह कविता आप लोगों ने अवश्य ही सुनी होगी,―