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विचित्र प्रवन्ध।

समझता हूँ कि चेतना का पीड़न कौतुक है और प्रसन्नता भी वही है। अतः यथार्थ आनन्द का प्रकाश स्मितहास्य के द्वारा और कौतुक का प्रकाश अट्टहास्य के द्वारा होता है। कौतुम-हास्य ना मानसिक आघात को शब्द के साथ बाहर निकाल देने के समान है।

क्षिति ने कहा―आप लोग मनमाने सिद्धान्त गढ़ लेते हैं और उनके लिए मनमाने उदाहरण भी ढूँढ़ लेते हैं। ऐसी स्थिति में ज्ञान या सत्यालय का निर्णय होना कठिन है। यह सभी जानते हैं कि हम लोग कौतुक से सदा अट्टहास्य ही नहीं करते, कभी कभी मुसकुरा भी देते हैं। कभी कभी तो यहाँ तक होता है कि लोग मन ही मन हसते हैं। परन्तु यह गौण बात है, मुख्य बात तो यह है कि कौतुक से हम लोगों का चिन्त उत्तेजित हो उठता है और सामान्य उत्तेजना से हम लोगों को सुख मिलता है। मनुष्य एक युक्ति-पूर्ण नियम के द्वारा परिचालित होता है। उसे सदा अपने अभ्यस्त और नियमित काम करने पड़ते हैं। हम लोगों के हृदय पर और बाहर भी इस नियम का समान अधिकार है। जिस समय हम लोगों का चित्त अनियमित रूप से विचरण करता है उस समय उसे अपनी अवस्था की एक विशेषता मालूम होती है। उसी समय यदि उसकी नियमित और परिमित परिधि के बाहर की कोई बात उपस्थित होती है तो हमारे चित्त पर उसका धक्का लगता है, और हम लोग बड़े ज़ोर से खिलखिला कर हँस पड़ते हैं। उस आघात में सुख नहीं, सौन्दर्य नहीं और सुभीता भी नहीं। उसमें अधिक दुःख की भी मात्रा नहीं रहती। इसी कारण कौतुक से उत्तेजित होने को हम लोग आमोद समझते हैं।