पृष्ठ:विचित्र प्रबंध.pdf/३१७

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विचित्र प्रबन्ध। पाश्चभौतिक सभा भी हम पाँच प्रादमियों का "किले का मैदान" है। यहाँ हम लोग सत्यरूपी अन्न की फसल के लिए नहीं पाते किन्तु सत्य का आनन्द लेने आते हैं । अतएव इस मभा में यदि किसी बात की पूरी पूरी मीमांसा न हो तो भी कोई हानि नहीं। सत्य का कुछ भाग पाजाना ही हम लोगों के लिए यथेष्ट है। सत्य के खेत को हम जात नहीं सकते तो न सही, यदि वहाँ से हम लोग एक बार निकल जाय तो भी हमारा इष्ट सिद्ध हो जायगा ! एक प्रकार का उदाहरण और देने से यह बात म्पष्ट हो जायगी। रोग के समय डाक्टर की दवा से उपकार होता है परन्तु उस समय अपने आत्मीय जनों की सेवा-शुश्रूषा से बड़ा आनन्द मिलता है । जर्मन पण्डितों ने जो पुस्तकें लिखी है वे तत्वज्ञान के अन्तिम सिद्धान्त कही जा सकती हैं, परन्तु उनसे मन का आनन्द नहीं मिलता। वे पुस्तके मन की सेवा नहीं करती अतएव वे औषध की टिका कही जा सकती हैं। पाञ्चभौतिक सभा में हम लोग जिम प्रकार अालोचना करते हैं, उसको गग की चिकित्सा कहना ठीक नहीं; उसका ता रागी की शुश्रपा कहनी चाहिए। अब और अधिक उदाहरण दना निरर्थक है । मुख्य बात यह है कि जम दिन हम चार जनों ने मिल कर हमी के विषय में जो बातें की थी उनमें कोई एक बात भी अन्तिम बात नहीं कही जा सकती । यदि हम लोग अन्तिम सिद्धान्त पर पहुँचने का प्रयत्न करते ना उससे सभा का प्रधान नियम भङ्ग हो जाता। वैसा करने के लिए कथोपकथन-सभा का नियम डाँकना पड़ता ।